शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

चेतना की देशना

श्रवण कर नित चेतना की  देशना।
जन्म जीवन है अकिंचन
देह भी नहीं  है चिरन्तन
सत्य केवल भासता है
मिथ्या माया जाल रोपण .
किसलिए बद्ध हो रहे तू
गतिशीलता मुक्ति प्रवीणा
श्रवण कर नित चेतना की देशना।
तू जिसे निज है समझता
वह कहीं  भिन्न विचरता
भूति की यह भाव वीथि
मानसिकता की दुरुहता
क्यों अब अवकाश चाहे -
अनात्म का आभास चाहे
प्रत्यक्ष सब कुछ मृन्मना
श्रवण कर नित चेतना की देशना।
किरण भीगी ऊषा भीनी
दीप्त यौवन दान कीनी
घनी क्षपा में उडुगणों की
खिल रही  आँख मिचौनी
संसरणशील संसार सारा
नित करे  मृष -कलपना
श्रवण कर नित चेतना की  देशना।
विगत ,गत विदित है क्या ?
सत्य मिल पाया कभी क्या ?
वय निरन्तर अग्रगामी -
रूप रह पाया कभी क्या ?
मृणमयी संसार सारा -
उपदिष्ट हो पाया कभी क्या ?
विचार तो सब खोखले हैं
तर्क वितर्क सब भोथरे हैं
खुल नहीं पाया रहस्य --
क्यों करे फिर चिन्तना
श्रवण कर नित चेतना की देशना।
सम्भूति भी तो व्यर्थ है
असम्भूति निरर्थक अर्थ है
तमसावृत देहागर्त है
अव्यर्थ भी तो व्यर्थ है
समर्थ रिक्त हस्त है .
सौंदर्य के उपकरण सारे
मरणधर्मा आनन्द सारे
विल्लोल वीचि है कल्पना
श्रवण कर नित चेतना की देशना। ................... अरविन्द





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