गुरुवार, 7 नवंबर 2013

आवारा चिंतन...... उत्सवप्रियता

   आवारा चिंतन।                             उत्सवप्रियता
विगत कुछ दिनों में कर्क चतुर्थी ,दशहरा ,दीपावली ,भाई दूज इत्यादि उत्सव आये ,जिन्हें पूर्ण उल्लास के साथ हिन्दू समाज ने अलंकृत होकर संपन्न किया। उत्सव प्रियता हिंदुओं कि महती विशिष्टता है। इनके यहाँ उत्सव का अर्थ है --सामंजस्य पूर्ण सामाजिक सौहार्द्र ,सुख ,समृद्धि ,कल्याण और दैहिक ,मानसिक और आत्मिक आनन्द।
परम्परा से प्राप्त , इस प्रकार की सामूहिक आनन्द वेला को, इस जाति ने चिरकाल से संभाला हुआ है। इस जाति के पञ्चांग का  अगर ध्यान और गम्भीरता से अवलोकन किया जाए ,तो विदित होता है कि यहाँ की प्रत्येक तिथि, यानि कि दिन ,अपनी विशिष्टता के साथ उदित होता है। हर दिन यहाँ उत्सव है। केवल जन्म ही नहीं बल्कि मृत्यु भी यहाँ  उत्सव ही है--ससीम का असीम से मिलनोत्सव,
आत्मा का परमात्मा से मिलन। प्रत्येक हिन्दू तिथि के अनुसार दिवस को आरम्भ करता है। तदनुकूल आचरण इस जाति की उदारमना संस्कृति का और सर्व -कल्याणकारी प्रज्ञा का उद्घाटन है।
विशेषता यह है कि अधिकांश उत्सवों का केंद्र स्त्री है। केवल यही जाति अपनी स्त्रियों को सर्वांगीण श्रृंगार से सुसज्जित करना जानती है। हिंदुओं के उत्सवों का अगर विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए तो इस सत्य की प्रतीति होगी कि पुरुषों के लिए केवल गिने चुने उत्सव हैं। कर्क चतुर्थी ,दीपावली, भाई दूज , रक्षाबंधन ,लोहड़ी इत्यादि पर्व स्त्रियों के सौंदर्य ,आनंद तथा प्रेम कि अविरल आस्था तथा आकांक्षा के प्रतीक हैं। सुखदा अनुभूति होती है कि स्त्री पुरुष में से कोई नहीं जानता कि किसने किस योनि से मुक्त होकर स्त्री या पुरुष के रूप में जन्म लिया है परन्तु पारस्परिक प्रेमानुभूति संकल्प और सहचरी भावना का अंतर्ग्रथित सम्बन्ध सदा से है और भावी जीवनों की अनवरत सम्बन्धों की धारा में बना रहेगा।  हम बार -बार मरें भी ,बार -बार जन्म भी लें और बार -बार इन्हीं सम्बन्धों के आंतरिक आनंद के उपभोक्ता भी रहे ---कर्क चतुर्थी यही सन्देश तो देती है। भविष्य अदृश्य है परन्तु कामना बलवती है। प्रेम परमात्मा का अनुपम वरदान है ,इसलिए सम्बन्धों का चिरंजीवी  स्थायित्व स्थाणु वत संरक्षणीय और सम्पूजनीय है।
नर नारियों कि सौंदर्य सज्जित प्रतिमाओं में जिन्होंने आस्था ,प्रेम ,विश्वास और समर्पण नहीं देखा ,वे इन उत्सवों में निहित पारमात्मिक सौंदर्य से भी वंचित हैं।
दीपावली ,जिसे लक्ष्मी पूजन से अभिहित किया जाता है ,क्या स्त्री सौंदर्य के प्रति अनुग्रह और प्रकृति के समक्ष पुरुष का विनम्र समर्पण नहीं ?क्या ये उत्सव मनुष्य के अंतरस्थ ईश्वरत्व का उद्दीपन नहीं ?दशहरा यद्यपि पौरुष का पर्व है ,तथापि व्यंजनात्मक सन्दर्भ में यह पर्व स्त्री की गरिमा संरक्षण का महनीय पर्व नहीं ?हमें समझना चाहिए की हिन्दू संस्कृति में स्त्री केवल भोग्या नहीं बल्कि अनंतदायी आनंद के जागतिक सत्य के सुख की सौंदर्यमयी प्रतिमूर्ति है।
जिस जाति में उत्सवों कि वृहद श्रृंखला नहीं होती वे जातियां हिंस्र और वैयक्तिक सुख संधान के स्वार्थ मार्ग पर चलने को बाध्य हो जाती हैं तथा समाज में असंतुलन ,उदासी ,अवसाद, जिघांसा और अनैतिकता को प्रश्रय देने लग जाती हैं। परिणाम शेष जातिओं और वर्गों को झेलना पड़ता है। इसलिए भिन्न भिन्न मतवादों की धमाचौकड़ी में इस उत्सव प्रियता का संरक्षण अनिवार्य है,क्योंकि यही जीवन कि जीवनंतता है। ……………अरविन्द

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