शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

कभी - कभी

कभी - कभी कुछ भी मन नहीं सोचता है
खाली आकाश में आवारा बादल घूमता है।
आदमियों की भीड़ में अपना नहीं मिलता
मुहं ढाँप कर अँधेरे में दुबकता है, सोता है।
अकेला होना ही तो कहीं क्या खुदा होना है
 दुनिया रचता है पर अलग रह नहीं पाता है।
संवेदनाएं भी यहाँ थिरकती तितिलियाँ  हैं
संभालना चाहते हुए भी पकड़ नहीं पाता  है। ………… अरविन्द


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