शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

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जिस प्रकार शिक्षा के केंद्र में मनुष्य है ,उसी प्रकार धर्म के केंद्र में भी केवल मनुष्य ही है। कोई पूजा पद्धति या गुरु नहीं। अगर ऐसा होता तो कबीर को यह न कहना पड़ता कि गुरु को मानुष जानते ते नर कहिये अंध अथवा वह परमात्म दर्शन से पूर्व गुरु को प्रणाम कर विदा न करता। अत: यहाँ यह विचारणीय है कि मनुष्य का ,शिक्षा और धर्म का उद्देश्य क्या है ? क्या जीविकोपार्जन के योग्य हो जाना ही उद्देश्य है ?क्या शिक्षा केवल जीविका के निमित्त ही है ?अगर ऐसा है तो धर्म कि कोई आवश्यकता ही नहीं है। न अच्छी नौकरी ,न अच्छी सेवा , न अच्छा व्यवसाय , न अच्छी गद्दी ,न ही अच्छी आर्थिक स्थिति मनुष्य का लक्ष्य या उद्देश्य है। जब तक हम इन्हें ही उद्देश्य मानते रहेंगे तब तक हम किसी भी प्रकार के शोषण के शिकार होते रहेंगे।
   मनुष्य ,शिक्षा और धर्म का उद्देश्य केवल ---ज्ञान ,सुख और स्वतंत्रता है। ज्ञान के विषय में तो सभी जानते हैं ,फिर भी संक्षेप में सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्ति का साधन ज्ञान है। कैसे इसे प्राप्त किया जाए --इस पर अभी विचार नहीं करते ,
सुख भी हमारे यहाँ पूर्णतया पारिभाषित है। यह कोई हैप्पीनेस या प्लेजर नहीं। और न ही वैयक्तिक धारणा के आधार पर इसे अपरिभाषित छोड़ा जा सकता है।
स्वतंत्रता स्वछंदता नहीं ,मानवीय विकास की उपलब्धि का मूलभूत कारण  है। इन तीनों उद्देश्यों कि प्राप्ति से  मनुष्य में गुणात्मक विकास की चरम परिणति सम्भव है। इसके लिए शिक्षा और धर्म दोनों समान रूप से संबद्ध हैं।
बालक अपने साथ कुछ लेकर नहीं आता है। समाज को ही उसके सर्वांगीण निर्माण में सहयोग करना होता है। जबकि इस निर्माण कार्य में हम अभी सफल नहीं हो पाये हैं। व्यक्ति का वैयक्तिक और सामाजिक चरित्र अभी अधूरा है ,इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। तो कारन तो तलाशना ही होगा। बालक के निर्माण के लिए जिस सामग्री का हम उपयोग कर रहे हैं ,उसमें मात्रा और कोई  महत्वपूर्ण वस्तु छूट गयी है।
भारतीय राजनीति ने कभी इस विषय में नहीं सोचना है। क्योंकि वह भेदवादी नीतियों के सृजन कर जातियों कि तंग गलियों से अपना रास्ता बनाना जान चुकी है। इसीलिए धर्म के प्रति पाखंडपूर्ण दुष्प्रचार निरंतर हो रहा है। विचार करने वाले प्रज्ञावान विद्वान भी खेमों में बाँट चुके हैं ,जो खेदजनक है।

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