शिक्षा के क्षेत्र में धर्म ,विशेष रूप से विचारणीय है
क्योंकि स्वतंत्रता के बाद हिन्दोस्तान में अगर कुछ शब्दों के साथ
अत्याचार हुआ है ,तो धर्म उनमें से एक है। हमने सम्प्रदाय को ही धर्म मान
लिया है। कुछ पूजा -पद्धतियां धर्म नहीं हो सकतीं। कुछ ग्रंथों का केवल
पाठ --धर्म नहीं है क्योंकि
धर्म आचरण और विचार की वस्तु है।
यह मात्र किसी एक मूर्ति ,मंदिर या स्थान में सीमित नहीं किया जा सकता।
दुर्भाग्य यही है की हमने साम्प्रदायिक श्रेष्ठा ग्रंथि से मुक्त हो कर
धर्म के विषय
में कभी सोचा ही नहीं है। हम कर्म काण्ड को
,मूर्ति -पूजा को ,गण्डे ताबीज को,जादू टोने को ,मंत्रोच्चार को
,प्रार्थनाओं को ,धर्म मानने लग गए हैं जो कि है नहीं। इन्हीं धारणाओं के
कारण धर्म के विरुद्ध अनेक मतवाद उत्पन्न हो गए हैं और अत्यंत महत्वपूर्ण
तत्व विचार की परिधि से बाहर कर दिया गया है। यह दुरभिसंधि भी हो सकती है।
बिना जाने खंडन करना या नकारना या अवहेलना करना सत्यान्वेषण के विरुद्ध है।
इसलिए धर्म और शिक्षा के अन्तर्सम्बन्ध पर निरपेक्ष चिंतन ,विचार और बहस
होनी चाहिए।
जिस प्रकार शिक्षा मनुष्य के विविध विकास पर आधारित है उसी प्रकार धर्म भी मानव के
बहुमुखी विकास से ही सम्बन्धित है। क्या अंतिम सत्य की तलाश करना शिक्षा
का उद्देश्य नहीं ?क्या मानव के चरम उत्कर्ष को प्राप्त करना शिक्षा की
अवधारणा में नहीं ?चेतना को जीवन की उच्चतम परिणति तक पहुँचाना क्या शिक्षा
की सीमा से बाहर है ?नहीं ऐसा नहीं हैं।
धर्म भी व्यक्ति जीवन
में इन्हीं अपेक्षाओं को पूर्ण करता है। शिक्षा की ही तरह धर्म भी जीवन से
सम्बंधित है और वह भी मनुष्य ले देह ,मन, बुद्धि ,चित्त और आत्म से जुड़ा
हुआ है। इसलिए शिक्षण के क्षेत्र में हमें धर्म और शिक्षा के अन्तर्सम्बन्ध
पर सम्प्रदायों से मुक्त चिंतन कर वास्तविक तथ्यों को प्रकट करना चाहिए।
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