रविवार, 10 नवंबर 2013

अरविन्द दोहे

घर से निकसे घर किया ,
घर में मिला ना  घर।
घर घर करते घर जी लिए ,
रहे हम बेघर के बेघर।
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चाहते चाहते अचाहे हुए
अब चाहत रही न कोय .
अनचाहे ही चाहा मिले,
 फिर क्यों चाहे कोय।
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यह जग सारा रब्ब का ,
रब्ब इस जग में नाहिं
कलरव तो सब कर रहे ,
अर्थ मिले कुछ नाहीं।
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गुरु जिना दे हों टप्पने
चेले जान उन छड़प्प,
गुरु चेले दियाँ जोड़ियाँ
रब्ब ते मारन गप्प।
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बहुत दिनों से हम देख रहे,
राजनीति की जंग .
दोषारोपण कर रहे
जो हैं दोषों के संग।
-----------------------------------------------अरविन्द दोहे  






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