हम दर्दों को शब्दों में क्यों सुलाएं
क्यों न खुशियों के सौ दीप जगाएं .
अपना है दर्द क्यों दूजों को दिखाएँ
हंसें ,मुस्कुराएं रोतों को भी हंसाएं।
सौगात यह पीड़ा अपनों से मिली है
अपना यह धन है क्यों इसे दिखाएँ।
बेगाने कभी हो नहीं सकते अपने
रूठा है जो अपना उसे तो मनाएं।
दीया जगा कर रखो दरवाजे पर
आओ न ,भटके को रास्ता सुझाएँ।
जिंदगी बोझ नहीं ,खिला कमल है
जूड़े में लगाएं चाहे खुद को सजाएं .
आकाश बुलाता है ऊंचाइयां पुकारतीं
माथे पे धर हाथ क्यों निकम्मा कहाएँ। …………अरविन्द
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें