आओ ! कुछ बात करें घर की।
दशहरा बीता ,करवा बीता
अहोई अष्टमी साथ बिताई है
कुछ पास हमारे बैठो प्रिये
अब घर की करनी सफाई है।
मकड़ी के जाले लगे हुए
मच्छरों ने धूम मचाई है।
मिट्टी की परतों ने भी प्रिय
दीवारों पर गर्द जमायी है।
धुएं से अपने चौंके में
कालिख ही पुत आयी है।
मेरी किताबों के ऊपर भी
धूल बहुत चढ़ आयी है।
झाड़ू पौंछा तुम छोड़ चुकी
खाती हो , सो जाती हो ,
टी वी के आगे बैठ प्रिये
तुम नाटक देखती रहती हो।
अपनी गृहस्थी के नाटक में
कुछ सेवा कर लें खटमल की
आओ ! कुछ बात करें घर की।
तुम कितनी सुंदर होती थीं
ज्यों कनक छरी लहराती सी
छम छम आँगन में प्यारी
मुस्काती थी ,कुछ गाती थीं।
वह लाल दुपट्टा तो तेरा
आदित्य पकड़ लहराता था
घर के सब बच्चों के संग
छुपा छुपायी होती थी।
याद करो अपना यौवन
इस घर में जब तुम आई थी
थापी लेकर इन हाथों में
नित वसनों की करे धुलाई थी।
थापी की थाप प्यारी से --
तुम मोटी नहीं हो पायी थी।
अब जबसे मशीन घर आई है
तुम बटन दबा कर सोती हो।
कपडे बेचारे तरस गए ---
तेरे हाथों की स्पर्श लुनाई को।
टुक बात सुनो इन कपड़ों की ,
आओ ! कुछ बात करें घर की।
मैं अब भी हूँ कृश काय प्रिये
सौ सीढ़ी झट चढ़ जाता हूँ।
पर तेरी स्थूलता के आगे
अब पस्त हुआ मैं जाता हूँ।
हिरनी जैसी चाल तुम्हारी ,
हथिनी जैसी हो गयी है।
सड़क किनारे खड़ा ,तुम्हारी
प्रतीक्षा में थक जाता हूँ।
कहाँ गयी वे सब बातें ?
कहाँ गयीं मदमस्ती की गतियाँ ?
मैं खुद ही सोचा करता हूँ
जब भुज वल्ली लहराता था
हे मुष्टि मध्यमा तुम्हें पकड़,
झूला भी खूब झुलाता था।
बीते युग की सुंदर बातें --
सब बात हुई सुख सपने की
आओ !कुछ बात करें घर की।
अभी तो कुछ बिगड़ा नहीं प्रिये
बिखरे बेरों को संभाल अभी
घर के सारे कामों में लग
सेहत की करो संभाल अभी।
इस माई को घर से करो बाहर
जो बर्तन मांजने आती है।
फर्शों को साफ़ नहीं करती
बस ,आधा झाड़ू लगाती है।
चम्मच भी चिपचिप करते हैं
थाली में शक्ल नहीं दिखती
गिलासों के किनारों पर ,तेरी
लिपस्टिक नजर आ जाती है।
तुम बहुत सफाई पसंद रही
आओ ! कुछ बात करें घर की।
अब बच्चों ने शादी कर ली
वे बाप बने उलझे रहते
गृहस्थी के सब सुख दुःख वे
मिल जुल कर तुमसे कहते।
उनको माता प्यारी है ,
वे बात सभी तुमसे करते।
तुम भी तो हँस हँस के अब
उनसे ही बतियाती हो।
यह वृद्ध अपने कमरे में
किताबों में उलझा रहता है
लिखने ,पढ़ने ,बतियाने में
समय व्यर्थ गंवाता है --
या बैठे ठाले कुछ न कुछ
कहते जाता है।
बातें इसकी क्यों तुझे नहीं सुहातीं
आओ ! कुछ बात करें घर की। ………………अरविन्द
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