शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

हम क्यों देखें

उनको हम क्यों  देखें जो चले नहीं दो कदम
अपने पर हम क्यों न खोलें नापें खुला गगन।
आकाश किसी की नहीं बपौती ,अपना भी है
उठूँ धरा से, उडूं मैं ऊपर, देखूं  कौन खड़ा  है .
कब तक अपनी सीमा को मर्यादा कहते रहें
जीवन तो निर्बंध खड़ा है करें चुनौती नमन।
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम।  
कौए ,गीदड़ ,हिरण साम्भर जीते पिता के घर
शेर नहीं ताकता धरोहर ढूंढ़ लेता नव वन वर।
गीदड़ बन अपना जीवन क्यों हम बर्बाद करें ?
जल्दी जल्दी इन शिखरों पर अपने कदम धरें.
आओ ! भीतर छिपी शक्ति का करें अभी वरण
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम ?
वर्षा ,आंधी ,ओले ,झंझा सब छाती पर सहने हैं
ऊँचे टीले ,गहरे गह्वर नर ने ही तो गहने हैं।
कापुरुष नहीं कर पाते जीवन में आत्म हवन
न हो साथ कोई हो अपना अकेले जूझ पड़ेंगे
भाव का मंथन कर जीवन अमृत पान करेंगे
साहस अपना दिन धर्म हो संघर्षी हों चरण
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम। ……………अरविन्द


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