उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम
अपने पर हम क्यों न खोलें नापें खुला गगन।
कौए ,गीदड़ ,हिरण साम्भर जीते पिता के घर
शेर नहीं ताकता धरोहर ढूंढ़ लेता नव वन वर।
गीदड़ बन अपना जीवन क्यों हम बर्बाद करें ?
जल्दी जल्दी इन शिखरों पर अपने कदम धरें.
आओ ! भीतर छिपी शक्ति का करें अभी वरण
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम ?
वर्षा ,आंधी ,ओले ,झंझा सब छाती पर सहने हैं
ऊँचे टीले ,गहरे गह्वर नर ने ही तो गहने हैं।
कापुरुष नहीं कर पाते जीवन में आत्म हवन
न हो साथ कोई हो अपना अकेले जूझ पड़ेंगे
भाव का मंथन कर जीवन अमृत पान करेंगे
साहस अपना दिन धर्म हो संघर्षी हों चरण
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम। ……………अरविन्द
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