बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

आवारा चिन्तन

                                         आवारा चिन्तन
                                      सत्संग  का निहितार्थ
आज परमात्म दर्शन की अनेक दुकानें खुल चुकी हैं। अधिकाधिक मात्रा में अदृश्य का व्यापार हो रहा है। कितनी विचित्रता है कि जो दीखता नहीं वही सबसे ज्यादा बिक रहा है। और परिणाम सुखद नहीं मिल रहे। इसलिए धर्म और अध्यात्म भौतिक जगत की सत्यता को समझना मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के लिए आवश्यक है। क्योंकि मेरी मान्यताएं प्रचलित धारणाओं को स्वीकार करने में असमर्थ हैं। मैं अनास्थावादी नहीं हूँ ,न ही मैं ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकृत करता हूँ। मैं भी परमात्मा को चाहता हूँ और परम्परा से प्राप्त ग्रन्थों का पारायण भी करता हूँ। मन्त्र पाठ ,भजन मुझे भी अच्छे लगते हैं परन्तु परमात्मा के नाम पर स्थापित मत मतान्तर कुछ प्रिय नहीं लगते। आजकल के धर्माधिकारियों के प्रवचनों के साथ ,पाखण्ड और अनर्थ कारी अर्थों और व्याख्याओं के साथ मेरा मन नहीं मिलता है। मुझे लगता है कि इन दुकानों से अलग होकर ही उस तक पहुंचा जा सकता है।
हमारा आर्ष चिंतन ,हमारे ऋषि ,हमारे कबीर ,नानक ,दादू ,सुंदर दास ,मलूक सहजो ,दया ,तुलसी सूर ,मीरा आदि अच्छे लगते हैं क्योंकि उनमें मौलिकता है। सृजन है। और असंगता है। इन निर्मल संतों, साधकों ने सामान्य मनुष्य के लिए धर्म और अध्यात्म के मार्ग को सुगम करने के लिए सत्य कहा है। इनकी वाणी और कर्म एक है। इनके द्वार खुले हैं। ये खिडकियों से नहीं झांकते। इन्होनें परमात्म प्राप्ति के लिए सत्संग ,समर्पण ,गुरु सिमरन ,एकांतिकता ,निर्मलता ,करुणा ,प्रेम और सद्भाव को महत्व दिया है। दुर्भाग्य यह है कि संतों के यही शब्द आज हमारे दोहन का कारण बन रहे हैं। जिस मनमुखता का इन संतों ने तिरस्कार किया वही मनमुखता आज दिखाई दे रही है ,इसीलिए समाज में भ्रम और अज्ञान है ,द्वेष और दुर्भाव है ,पाखण्ड और भौतिक सुखों की उपासना है। और अन्ततोगत्वा पश्चाताप है।
भक्ति का एक मात्र अर्थ विशुद्ध ,निष्कलुष और निस्वार्थ प्रेम है। एक ऐसा भाव ,जहाँ भी अनन्यता होगी। आत्मीयता होगी वहीँ भक्ति का संवाहक बन जाता है। इसी प्रेम से अनुरक्ति उत्पन्न होती है ,जो ईश्वरानुरक्ति में परिणत हो जाती है। इसी ईश्वरानुरक्ति को प्राप्त करने के लिए सत्संग के महत्व को सभी स्वीकार करते हैं।
सत्संग का अर्थ सत का संग है ,किसी व्यक्ति या संत का संग नहीं। परन्तु आज तथाकथित कथावाचकों ,प्रवचनकर्ताओं ,व्याख्याकारों और असधाकों के संग को ही सत्संग माना जाने लगा है। इसीलिये एकान्तिक साधना लुप्त हो चुकी है और माया ,प्रपंच ,पाखण्ड का नग्न नृत्य दृष्टिगोचर है। परिणाम यह है कि मनुष्य परमानन्ददायिनी भक्ति की मधुमती भूमिका में  प्रवेश नहीं कर पाते।
सत्संग का अर्थ किसी के पास जाकर कथा श्रवण करना नहीं है बल्कि यह व्यक्तिगत साधन की अनुभूति की शांत स्वीकृति है। व्यक्ति के संग से दोष उत्पन्न होता है और बहुश्रुत होने से ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। उपनिषद भी कहता है ,नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो ,न मेधया न बहुना श्रुतेन। सत का संग अर्थात रजस और तामस से मुक्ति क्योंकि राजसिकता और तामसिकता हमें बहिर्गत करती है ,इंद्रिय सुख की ओर ले जाती है जबकि सत हमें अंतर्जगत की ओर उन्मुख करता है। यहीं से परमात्म दर्शन का मार्ग खुलता है।
मनुष्य त्रिगुणात्मक है जबकि परमात्मा त्रिगुणातीत। सत का संग ही त्रिगुण से मुक्ति का साधन है। तो क्या आज के तथाकथित संत कथावाचक या प्रवचनकर्ता हमें त्रिगुण से मुक्त कर पा  रहे हैं नहीं ,बल्कि आज जिनके पास भीड़ साष्टांग दण्डवत करती है उनका व्यक्तित्व और जीवन दैहिक ,भौतिक और मानसिक सुखों का अभ्यस्त है। वे संगीत की लहरियों पर एन्द्रिय सुख की ओर ले जा रहे हैं। यह सत्संग नहीं हो सकता। इसीलिए आज समाज का दोहन हो रहा है। और वास्तविक संत ढूंढे नहीं मिल रहे। ………………अरविन्द

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