आवारा चिन्तन
भारतीय
संस्कृति में दो अत्यन्त महत्वपूर्ण शब्द हैं ---विद्या और शिक्षा। आज इन
दोनों शव्दों पर विचार करना इसलिए आवश्यक प्रतीत हो रहा है क्योंकि हमारे
समस्त तथाकथित विद्या केंद्र अपना चरित्र और आधार खो चुके हैं। स्कूल
,कॉलेज ,यूनिवर्सिटीज --सर्वत्र अकुशल प्रबंधन के कारण असुरक्षित अस्तित्व
में जी रहे हैं। ईमानदारी और मूल्य -निष्ठां को संघर्षशील होना पद रहा है।
प्रसिद्ध
लोकोक्ति है --विद्या विचारी ता परउपकारी। कहीं किसी भी केंद्र में आपको
इस लक्षण का कोई भी उदहारण मिल रहा है ?विद्या व्यक्ति को सद्भाव
,प्रेम,सत्य -शीलता ,उदारता और साधना जन्य संतोष प्रदान करती है ,जबकि आज
के तथाकथित विद्या वान, कुर्सीवान ,पदवान न सद्भावी हैं ,न सहनशील ,न
प्रेमी ,न उदार और न ही करुणापूर्ण हैं। बल्कि स्वार्थ ,निजी हितसाधन
,चाटुकारिता और लिप्सा के मूर्त रूप हैं। इसी कारण सभी शिक्षा केन्द्रों
में गहरा असंतोष विद्यमान है।
विद्या के केंद्र हों और
असंतोष हो ,तो सर्वतंत्र स्वतंत्र ज्ञान के द्वार तो रुद्ध ही रहेंगे।
इसका अर्थ है कि ये केंद्र ज्ञान और विद्या के नहीं रहे बल्कि ऐसी शिक्षा
के केंद्र बना दिए गये हैं ,जो समस्त अमानवीयता की जननी है।
विद्या
उद्घाटन है जबकि शिक्षा अर्जन। अपने स्कूल तथा कॉलेज के विद्यार्थियों में
अर्जित दुर्गुणों की संख्या गिनें। हमने क्या अर्जन किया है समझ आ जाएगा।
अधिकतर
शिक्षित व्यक्ति आज मानसिक रूप से बीमार हैं ,परपीडन को अपनी शक्ति समझने
वाले ,दूसरों के अधिकारों का हनन करने वाले ,प्रतिस्पर्धा में उतरने के
स्थान पर गोटी बिठाने वाले ----स्वस्थ नहीं हो सकते। और अधिकतर संख्या
इन्हीं लोगों की है। केंकड़ा वृति का सबसे ज्यादा प्रयोग शिक्षा संस्थानों
में देखा जा सकता है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली ने समाज का हित
साधन नहीं किया ,केवल रोजी रोटी कमाना या हथियाना ,हड़पना ही सिखाया है। आप
तुलना करें ---तक्षशिला से आदमी बन कर निकलते थे आज तंत्र के पुर्जे या
नौकर निकल रहे हैं।
विद्या या ज्ञान अनुभव का हस्तांतरण है ,पुस्तक तो केवल साधन है।
आज
नकटा समाज है जो अपनी संख्या को ही बढ़ा रहा है क्योंकि प्रजातंत्र में
संख्या का बल ही वास्तविक बल माना जाता है। इसी कारण मूल्य हीनता जन्म ले
चुकी है ,पदों का दुष्प्रयोग इसीलिए है। असुरक्षा और उत्पीड़न भी इसीलिए है।
और इसीलिए ईमानदार कर्मशील व्यक्ति को संघर्ष करना पड़ता है ---यह बेहद
आवश्यक भी है। हम क्यों नकटा सम्प्रदाय के सदस्य बनें।
मित्रो !बीमार व्यवस्था पर विचार करना भी जरूरी है क्योंकि हम कहीं पर भी स्वस्थ और सुरक्षित नहीं हैं।
1 . आज न धर्म स्वस्थ और सुरक्षित है क्योंकि वहां आसारामी वृति घुसपैठ कर चुकी है।
2 . न राजनीति स्वस्थ है क्योंकि वहां असहाय मौन स्थापित कर दिया गया है।
3 . न ज्ञान सुरक्षित है क्योंकि साम्प्रदायिक चिन्तन ने उसे खंडित कर दिया है।
4 . न खान --पान सुरक्षित है क्योंकि वहां जहर भरा जा चुका है।
5 . न प्रबन्धन स्वस्थ और सुरक्षित है क्योंकि वहां भेड़िया धसान और भ्रष्टाचरण प्रवेश कर चुका है।
6 . न गलियाँ और सड़कें सुरक्षित हैं वहां बटमार ताक लगाए बैठे हैं।
सोचिये तो सही कि हम कहाँ सुरक्षित हैं ----यह सब शिक्षा में मूल्यों के अभाव और गुणों की अनुपस्थिति के कारण तो नहीं कहीं ?………. अरविन्द
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