शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

संत और संतत्व

                                   संत और संतत्व
भारत में सदा से संतों का महत्व रहा है। संतों ने देश के विकास में अभूतपूर्व योगदान भी दिया है। राष्ट्र भक्त ,देशभक्त और सदाचारी बलिदानियों की परम्परा के निर्माण में संतों के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जीवन के विविध क्षेत्रों में संतों के अवदान पर किसी भी विश्वविद्यालय में शोध की विस्तृत योजना का निर्माण नहीं किया क्योंकि हमने भारत की पुरा परम्परा में उपलब्ध ज्ञान से मुहं मोड़ लिया है। इस देश में ज्ञान विज्ञान की अनेक शाखाएँ थीं। आज  न समाज शास्त्र ,न साहित्य ,न धर्म और न ही मनोविज्ञान इस क्षेत्र में कोई खोज ,शोध ही कर रहा है। हमनें कुछ निकम्मे ,जाहिल और पाखंडियों को संतों की  पारंपरिक वेश भूषा में देख लिया और सत्य के अनुसंधान के सभी प्रयत्न बंद कर दिए। हमारी विचारधारा कितनी पंगु है ,इसको जानना कठिन नहीं है।
कम्युनिस्ट संतत्व को स्वीकार नहीं करते तो उन्हें प्रसन्न करने के लिए ,हमने भी अपनी ज्ञानात्मक धरोहर का त्याग कर दिया। राजनीति ने धर्म निरपेक्षता का आवरण ओढ़ लिया।  परिणाम समस्त पुरातन ज्ञान पौन्गापंथी कहलाने लगा। किसी ने भी शोध और खोज के आधार पर साधनात्मक ज्ञान की परीक्षा नहीं की। यह हमारी अपनी सामर्थ्य हीनता है।
हमने मन के चेतन ,अचेतन ,अतिचेतन की तो खोज की परन्तु अतिचेतन में उतरने का कोई प्रयास नहीं किया। संतों की निष्ठां और ज्ञान को भक्ति कह कर सीमित करने के प्रयास तो सभी विद्या केन्द्रों में हुए ,किसी भी विद्वान् ने यह कभी विचार नहीं किया कि संत केवल भक्त ही नहीं थे ,वे सत्य के शोधक भी थे। केवल अदेखे परमात्मा तक ही उन्हें सिमित करके हमने ज्ञान के उन दरवाजों पर  दस्तक देनी बंद कर दी ,कहीं जग हंसाई न हो।
जिस देश में चौसठ कलाओं की शोध हुई हो और उन्हें बाद में सौलह तक अकारण सीमित कर दिया गया हो ,आप स्वयं ही इन तथाकथित पंडितों का निकम्मापन देख लीजिये।
हमारी गतानुगतिक प्रवृति और तुष्टिकरण की नीति के साथ गंभीर परिश्रम का अभाव हमें गंभीर शोध करने से रोकता रहा है और वे लोग भी दोषी हैं जिनमें योग्यता नहीं थी ,पर वे येन केन प्रकारेण पदासीन रहे अथवा हैं।
इतिहास लेखन किसी स्वतंत्र चिन्तक के द्वारा नहीं लिखा गया बल्कि स्वतंत्रता के बाद भी आश्रितों के ही अधीन रहा। इसीलिए पुराकालीन ज्ञान शाखायों के प्रति अवहेलना की वृति रही है। आधुनिकों ने भी इस ओर सोचना नहीं चाहा ,क्योंकि आधुनिकता खतरे में पड़ने की संभावना से ग्रसित रही। यूजी सी जैसी संस्था भी इधर नहीं सोच रही। पुरातन ज्ञान की धारा को लुप्त करने में ही पुरुषार्थ समझाने वाले पंडितों ने हमें आवृत कर लिया है।
आज एक संत ने स्वर्ण का स्वप्न क्या देख लिया कि सभी भौतिक विद तिलमिला उठे। धुर से वाणी भी उतरती है,  इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा। हिन्दोस्तान में भूगर्भवेत्ताओं की बीस से अधिक  श्रेणियां विद्यमान रही हैं , यह वही देश है जहाँ अनपढ़ आदमी छड़ी की नोक से धरती में पानी कहाँ और कितना गहरा है ,जान जाते थे।
हमें यह समझना चाहिए कि कथावाचकों और अपनी ही पूजा करवाने के लिए उत्सुक लोगों को इस देश ने कभी संत नहीं माना . न ही पंडित और पुरोहित भी ज्ञानियों ,ऋषिओं और संतों की परम्परा में परिगणित हुए हैं।
संत अंतर्गत साधक ,मौन चिन्तक ,और प्रयोगात्मक ऋषि रहे हैं ---इस और ध्यान देना आवश्यक है। ………… क्रमश :……………. अरविन्द

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