कुपित ग़ज़ल
हम अपने प्यारों के लिए गज़ल लिखते हैं
किस्मत के मारों के लिए गज़ल लिखते हैं।
दिखती नहीं चांदनी में भी अब हमें चांदनी
बेबसों की बेकसी मजलूम गज़ल लिखते हैं .
पदों पर जम गए खूंखार मगरमच्छों से वे
जालिमों के जुल्म को गज़ल में लिखते हैं।
सियार आके बस गए हैं इस जंगल में अब
हिरणियों की भीत आँखों की गज़ल लिखते हैं .
वोटों के लिए बिक गये जो शैतान हाथों में
सिसकते लोकतंत्र की हूक गज़ल लिखते हैं।
घोंसलों में महफ़ूज नहीं चिड़ियों के बच्चे
उल्लु की शातिर निगाहों की गज़ल लिखते हैं .
आशा की कोई किरण नहीं दीखती अब कहीं
बदकिस्मती से हम अंधेरों की गज़ल लिखते हैं। ……अरविन्द
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