गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल

भावों के जंगल के अजीब परिंदे हैं
पर जला के अपने फिर मुस्कुराते हैं .
प्यार को तो बेवजह हम दोष देते हैं
मूर्खों के सिरों पर सींग नहीं होते हैं।
यार  दरख्त का पका फल नहीं होता
अंधे हैं वे जो तोतों की  चोंच होते हैं .
संभालना नहीं आता जिन्हेंखुद दुपट्टा
जिन्दगी की धार में बेतरतीब होते हैं।
उनके लिए तो हम बस नंग मलंग हैं
अनिकेतों के लिए घर घर नहीं होते हैं।
क्यों  भेजूँ ख़त मैं  अपने प्रियतम को
हर जगह उसके जो दर्शन मुझे होते हैं।
किसी की आँख का पर्दा क्यों उठायें हम
अंधों की बस्ती में दर्पण नहीं होते हैं। ………………. अरविन्द ग़ज़ल


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