बाबा जी का ठुल्लु 
देखा नहीं ,जाना नहीं मंगलवार, 31 दिसंबर 2013
बाबा जी का ठुल्लु
सुनो !
सुनो !
अंजुरी में अब भर तो लो 
आंखड़ियों में धर तो लो। 
कब तक खड़ा रहूँ द्वारे पर 
अब अपना तो कर तो लो। 
मुझे सदा बेगाना माना है 
अपनों को अपना जाना है 
दो फूल चढ़ा दें देहली पर 
कुछ लोटा जल दे जाएँ जो 
कुछ मीठी मीठी बातों से 
तेरे गीतों को गा जाएँ जो 
क्या वही अपने होते हैं ?
जो आँखे भर तकते रहते हैं। 
मैं गीत न कोई गा सकता 
झोली भर फूल न ला सकता 
जगती का सब कुछ जूठा है 
उच्छिस्ट नहीं मैं दे सकता। 
मैं राह की चाहे धूल सही 
बिखरा हुआ कोई फूल सही 
देखा चाहूं तेरी दरियादिली 
शबनम के इस कतरे को 
चूम के दरिया कर तो लो 
अंजुरी में अब भर तो लो। 
बड़े शौक से प्रभु बन बैठे हो 
बड़े शौक से सजदा सुनते हो 
खुद खुदा बने बैठे हो प्यारे 
मुस्का के अपना कर तो लो 
अंजुरी में अब भर तो लो। ............. अरविन्द 
सोमवार, 30 दिसंबर 2013
अरे ! यह साल भी बीता 
अरे यह साल भी बीत। 
समय तो नापता ,ले 
अपने हाथ में फीता    . 
अरे ! यह साल भी बीता। 
उठो ! अब जाग जाओ ,
खोलो आँख तुम ,मूंदे द्वार खोलो। 
नयी किरण संग संकल्प के 
नव संसार को खोलो। 
हिलाओ विचार का सागर 
उठे कोई नयी लहर आकर 
खोले रुद्ध कपाट प्रभाकर 
पाएं सभी शांति सुधाकर। 
न गिनो तुम बीते हुए पल ,घंटे। 
न देखो तुम विगत दिन ,मास के टंटे 
उठो स्वागत करो ,आगत वर्ष के 
उत्थान के ,उत्कर्ष के विमर्श भरे धंधे। 
बीतता हो दिन ,न बीते आदमीयत ये 
बीत जाएँ मास ,न बीते आत्मीयता ये 
शुभ संकल्प के शुभ क्षण न बीतें 
जगे आत्म सभी का ,जगे परमात्म भी 
मिटे द्वैत का दुःख ,भेद कारक ही। 
आओ स्वागत करें नव रश्मि का ,
नव वर्ष का ,आगत सुबह का। 
बीत गया जो ,बीता  सो बीता …………अरविन्द .           
शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013
साधना के मंदिर
             न काल देश का पता  ,न दयाल देश का पता 
                                थोथी वाणी व्याख्या में पूरे सिध्दहस्त हैं। .........................
.........................
………………………
मंगलवार, 17 दिसंबर 2013
गाता है कृष्ण
गाता है कृष्ण ,गाती है प्रकृति 
नाचता है कृष्ण नाचती है प्रकृति 
बाल बाल नाचे ,गोपाल सब नाचे 
सत्य मुखरित कर गया कण -कण दोहे
दोहे 
स्वप्नों का संसार है ,सत्य न इसे मान। शनिवार, 14 दिसंबर 2013
सबने सबको नोचा है
सबने सबको नोचा है ,
लोकतंत्र का लोचा है। 
जनता बलि पशु बनी है 
शातिर हाथों में सत्ता है। …………अरविन्द मंगलवार, 10 दिसंबर 2013
जीओ
जीओ तो अपना जीवन जीओ 
उधार का जीना जीना नहीं है शनिवार, 7 दिसंबर 2013
कुर्सी
जोड़ तोड़ करके जो भी कुर्सी पर बैठने आया है 
अहंकार की खूंटी पर दिमाग टांग कर लाया है। 
पद मद, दुष्टता, धन, चापलूसी  और बेईमानी 
मूर्खता से भरा टोकरा वही अपने साथ लाया है। 
कुर्सी पर  बैठते  ही  धृतराष्ट्र  हो  जाते  हैं कुछ 
अपना ही घर भरना आजकल कुर्सी की माया है . 
समता समानता ,परहित कल्याण को छोड़िये 
कुर्सी पर तो किसी शातिर शैतान का साया है। 
मासूम सा चेहरा झुकी आँखें ,मीठी भाषा लेकर  
खूंखार जानवरों ने आज कुर्सी को हथियाया है। 
चापलूसों की भारी भीड़ ने घेर लिया है कुर्सी को 
आम आदमी को इन कुर्सी वालों ने तड़पाया है। 
धर्म ,राजनीति ,व्यवस्था और विद्यालयों में 
कुर्सी पर बैठे अमानुष ने खूब  आतंक मचाया है । 
भले मानस ,बड़े पंडित ,आम विद्वान ये सारे 
कुर्सी के स्तुतिगान में सबने दिमाग खपाया है । 
षड्यंत्र , मक्कारी, कमीनगी  और  अन्याय 
कुर्सी के चारों पैरों पर इन्हीं का घना साया है। …………अरविन्द 
गुरुवार, 5 दिसंबर 2013
बहुत बुरा लगता है
बहुत बुरा लगता है 
जब कोई छोटा आदमी जब पढ़े लिखे लोग
कुर्सी के जोर पर 
धमकाता है,
अपने अधीनस्थों पर घिघियाता है 
पढ़े लिखे लोग पूंछ दबाये 
गर्दन झुकाये 
चुपचाप लुटे पिटे निकल जाते हैं। 
बहुत बुरा लगता है . 
क्योंकि यही छोटा आदमी उनका आदर्श है 
इसकी कमीनी चालाकियों को 
ये लोग बड़ी बारीकी से देखते हैं 
उसके द्वारा फैंके गए टुकड़ों को 
बड़े प्रेम से सहेजते हैं,
अपने से छोटों के ऊपर 
आँखें तरेरते हैं 
उन्हें अपने झुण्ड में शामिल करते हैं 
रक्तबीज इसी तरह बढ़ते हैं। 
संस्थाओं में नित नए पाप फलते हैं। 
बहुत बुरा लगता है। ………………… अरविन्द 
मंगलवार, 3 दिसंबर 2013
दोहे
भारत के लोकतंत्र के तीन बचे आधार 
गरीबों को मुफ्त अन्न ,पैसा और शराब। आज फिर जीने की तमन्ना है।
आज फिर जीने की तमन्ना है। 
कब तक मुहं ढाँप सोते रहोगे ?
कब तक दर्द बेगाना ढोते रहोगे ?
कब तक करवटें यूँ बदलते रहोगे ?
कब तक यूहीं सोचते रहोगे ?
आज फिर जीने की तमन्ना है। 
जीना है तो दर्द को उड़ा कर जीओ 
जीना है तो खुल कर मुस्कुरा कर जीओ 
जीना  है तो ललकार मार कर जीओ 
जीना है तो तलवार की धार पर जीओ 
जीना है तो फूल सा खिलखिला कर जीओ 
जीना है तो किसी को अपना बना कर जीओ 
जीना है तो दर्द को भुला कर जीओ 
जीना है तो बस अपना ही जीओ 
जीना है तो प्रभु को मना कर जीओ 
जीओ तो जलती मशाल सा जीओ 
जीओ तो भारी तूफ़ान सा जीओ 
जीओ तो तड़पते प्यार सा जीओ 
जीओ तो किसी के कंठहार सा जीओ 
जीना ,चुप चुप नहीं रोना है। 
आज फिर जीने की तमन्ना है। 
जीओ तो घिरते हुए बादल सा जीओ 
जीओ तो बरसते सावन सा जीओ 
जीओ तो उमड़ते सागर सा जीओ 
जीओ तो लहराते हुए दामन सा जीओ 
जीओ तो बनिए की दूकान सा न जीओ 
जीओ तो सर्वस्व दान सा जीओ 
जीओ तो शिशु की मुस्कान सा जीओ 
जीना , गुमसुम नहीं होना है। 
आज फिर जीने की तमन्ना है। ................ अरविन्द 
               (अपने अभिन्न मित्र डा० के.के. शर्मा के लिए )
शुक्रवार, 29 नवंबर 2013
कभी - कभी
कभी - कभी कुछ भी मन नहीं सोचता है 
खाली आकाश में आवारा बादल घूमता है। दुनिया रचता है पर अलग रह नहीं पाता है।
मंगलवार, 26 नवंबर 2013
वाह !वाह !!
नियति का धत्ता 
गिरता हुआ पत्ता 
लहुलुहान हुए महान 
           वाह ! वाह !!
पुत्रों का सद्चरित्र 
खुल गए वृद्धघर 
          वाह ! वाह !!
भ्रष्ट हुए अधिकारी 
व्यवस्था की बीमारी 
          वाह ! वाह !!
मंदिरों का गृह गर्भ 
अपढ़ पुजारी का दर्प 
            वाह !वाह !!
परमात्मा की मुस्कान 
पाखंडियों की दूकान 
            वाह ! वाह !!
धूर्त हुए धनवान 
पदों को पहचान 
            वाह ! वाह !!
दुष्टों की खुली भर्ती 
योग्यता रही भटकती 
              वाह ! वाह !!
मूर्खों की सवारी 
कुर्सी हुई बेचारी 
 
           वाह ! वाह !!
कविता करे आह ,आह 
भई वाह ! भई वाह ,
             वाह ! वाह !!………… अरविन्द 
सोमवार, 25 नवंबर 2013
मुस्कुरा के
मुस्कुरा के जरा इशारा कीजिये 
रूठने वालों को निहारा कीजिये।  गीतोंमें झिलमिल लाया कीजिये
आँखों का सुरमा चुराया कीजिये .
कंधे पे उनके सिर टिकाया कीजिये 
कानों में होले फुसफुसाया कीजिये। 
कपोलों पे गिरी लट झुलाया कीजिये 
होठों से कभी तो गुदगुदाया कीजिये। 
प्यार को प्यार से संभाला कीजिये 
दूध को खुद भी तो उबाला कीजये . ………… अरविन्द 
अपना है दर्द
 हम दर्दों को शब्दों में क्यों सुलाएं 
क्यों न  खुशियों के सौ दीप जगाएं  . मंगलवार, 19 नवंबर 2013
ओ ! आजा मेरे प्यारिया
ओ ! आजा मेरे प्यारिया 
मेरी अखां  दे ओ तारिया . शुक्रवार, 15 नवंबर 2013
s
जिस प्रकार शिक्षा के केंद्र में मनुष्य है ,उसी 
प्रकार धर्म के केंद्र में भी केवल मनुष्य ही है। कोई पूजा पद्धति या गुरु 
नहीं। अगर ऐसा होता तो कबीर को यह न कहना पड़ता कि गुरु को मानुष जानते ते 
नर कहिये अंध अथवा वह परमात्म दर्शन से पूर्व गुरु को प्रणाम कर विदा न 
करता। अत: यहाँ यह विचारणीय है कि मनुष्य का ,शिक्षा और धर्म का उद्देश्य 
क्या है ? क्या जीविकोपार्जन के योग्य हो जाना ही उद्देश्य है ?क्या शिक्षा
 केवल जीविका के निमित्त ही है ?अगर ऐसा है तो धर्म कि कोई आवश्यकता ही 
नहीं है। न अच्छी नौकरी ,न अच्छी सेवा , न अच्छा व्यवसाय , न अच्छी गद्दी 
,न ही अच्छी आर्थिक स्थिति मनुष्य का लक्ष्य या उद्देश्य है। जब तक हम 
इन्हें ही उद्देश्य मानते रहेंगे तब तक हम किसी भी प्रकार के शोषण के शिकार
 होते रहेंगे। 
   मनुष्य ,शिक्षा और धर्म का उद्देश्य केवल 
---ज्ञान ,सुख और स्वतंत्रता है। ज्ञान के विषय में तो सभी जानते हैं ,फिर 
भी संक्षेप में सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्ति का साधन ज्ञान है। कैसे इसे
 प्राप्त किया जाए --इस पर अभी विचार नहीं करते ,पुकार भरी बातें
सुख पहुंचाती हैं तेरी कवितायी बातें 
अनुभव दिखलाती हैं तेरी यही बातें। गुरुवार, 14 नवंबर 2013
शिक्षा के क्षेत्र में धर्म
शिक्षा के क्षेत्र में धर्म ,विशेष रूप से विचारणीय है
 क्योंकि स्वतंत्रता के बाद  हिन्दोस्तान  में अगर कुछ शब्दों के साथ 
अत्याचार हुआ है ,तो धर्म उनमें से एक है। हमने सम्प्रदाय को ही धर्म मान 
लिया है। कुछ पूजा -पद्धतियां धर्म नहीं हो सकतीं।  कुछ ग्रंथों का केवल 
पाठ --धर्म नहीं है  क्योंकि 
धर्म आचरण और विचार की  वस्तु  है। 
यह मात्र किसी एक मूर्ति ,मंदिर या स्थान में सीमित नहीं किया जा सकता। 
दुर्भाग्य यही  है की हमने साम्प्रदायिक श्रेष्ठा ग्रंथि से मुक्त हो कर 
धर्म के  विषय रविवार, 10 नवंबर 2013
अरविन्द दोहे
घर से निकसे घर किया ,
घर में मिला ना  घर। ------------
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शुक्रवार, 8 नवंबर 2013
चेतना की देशना
श्रवण कर नित चेतना की  देशना। 
जन्म जीवन है अकिंचन गुरुवार, 7 नवंबर 2013
आओ ! कुछ बात करें घर की
आओ ! कुछ बात करें घर की। 
दशहरा बीता ,करवा बीता 
या बैठे ठाले कुछ न कुछ 
कहते जाता है। 
बातें इसकी क्यों तुझे नहीं सुहातीं 
आओ ! कुछ बात करें घर की। ………………अरविन्द 
आवारा चिंतन...... उत्सवप्रियता
   आवारा चिंतन।                              उत्सवप्रियता 
विगत
 कुछ दिनों में कर्क चतुर्थी ,दशहरा ,दीपावली ,भाई दूज इत्यादि उत्सव आये 
,जिन्हें पूर्ण उल्लास के साथ हिन्दू समाज ने अलंकृत होकर संपन्न किया। 
उत्सव प्रियता हिंदुओं कि महती विशिष्टता है। इनके यहाँ उत्सव का अर्थ है 
--सामंजस्य पूर्ण सामाजिक सौहार्द्र ,सुख ,समृद्धि ,कल्याण और दैहिक 
,मानसिक और आत्मिक आनन्द। बुधवार, 6 नवंबर 2013
खोल दो हे प्रभु ये नव द्वार
चमकता है प्रकृति का दर्पण 
झाँक रहा ब्रह्म यहाँ निर्भ्रम 
नयन की ससीम असीम गुहार 
प्रभु !तुम ही लो अब  निहार। 
जगे जीवन का सत्य प्रकाश 
भग्न हो माया दुबिधा भास् 
तोड़ दूँ अंध कूप का द्वार 
मिले जो तेरा ज्ञान कुठार। 
जगत तो छाया का आभास 
असत्य मृदु संबंधों का लास 
बहु वर्णी इह के हैं सब पाश 
मुक्ति का मिले नहीं  अवकाश। 
गति ,अगति दुर्गति के कर्म 
कर्ता अकर्ता सब विभ्रम 
निर्गत झांक रहा निर्मम 
ज्ञान भी छाया ग्रथित प्रकाश। 
सुगत कि स्थिति कहीं है और 
विगत से चिपक रहा मन मोर 
व्यर्थ हैं कर्म बंधन के शोर
दिखेगी कब तव इंगित भोर 
प्रतीक्षा में हूँ रहा पुकार 
खोल दो हे प्रभु ये नव द्वार। ............. अरविन्द 
शुक्रवार, 1 नवंबर 2013
बापू के कुछ बंदर
बंदर ---2 . 
जहाँ भी देखो आ बैठे हैं बापू के कुछ बंदर मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013
हम
कहीं हीरा हुए हम ,कहीं पत्थर हुए हम 
इच्छा है जैसी आपकी ,वैसे ही हुए हम। 
अपना ही हमको मिल गया अपना हुए हम। 
सोई रात में कल  जगा दिया उस  प्रभु ने 
नींद सारी उड़ गयी ,लो राम हो गये हम। ………………अरविन्द 
गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013
सर्दी उतर आयी है।
मौसम बदल गया है भाई, 
सर्दी उतर आयी है। 
सिर भारी मेरा कर दिया 
कनपटियों में 
दर्दीली लहर उमड़ आयी है। 
नासिका बंद बंध 
आँखों की बैरोनियों में 
लाली उतर आयी है। 
सर्दी उतर आयी है। 
गला भारी भारी ,
कंठ थरथराता है। 
बोलता हूँ जीभ से 
नाक आगे आ जाता है। 
जैसे शीत सारी 
मेरी छाती में समायी है। 
सां सां की ठंडी लहर 
साँसों में उतर आयी है। 
सर्दी उतर आयी है। 
रामदेव फेल हुआ 
झंडु ,डाबर मुहँ छिपाते 
वैद्य नाथ कहीं नजर नहीं आया है। 
दोशांदे सारे पीये , 
तुलसी मजूम बहुत खाया मैने 
हमदर्द दर्द दे गया 
अब चारपाई भायी है। 
पत्नी ने मुहं फेरा ,
बच्चे दूर हो गये। 
हालचाल पूछ मित्र भी 
डरे ,परे हुए। 
नजला ,जुकाम, खांसी 
देह चरमरायी है। 
विरहिणी का ताप जैसे 
देह में समा गया --
जेठ के महीने का --
ताप तन तायी है। 
कुदरत का ऐसा प्यार 
हर साल आता है। 
भुज पाश में आबद्ध कर 
पूरा छा जाता है। 
सर्दी का संयोग प्रेम 
सप्ताह भर रहता है। 
कोई भी बेगाना तब 
पास नहीं आता है। 
साप्ताहिक संयोग आनन्द 
हम खुल कर मनाते हैं। 
ताप चढ़ी देह में सर्दी को 
सजाते हैं। 
सर्दी को मानते हैं। 
अभिसारिका सी सर्दी 
दबे पाँव चली आती है . 
मिलानातुरता उसे 
खींच मेरे पास ,हर साल 
लाती है। 
खुले मन भोगती 
परमानन्द मनाती वह 
अन्तर -सुख भोग कर 
प्रसन्न मन लौट जाती है। 
मैं भी  उदास मन ,
बिस्तर को त्यागता हूँ . 
अगले साल आएगी 
प्रतीक्षा मन छाई है। 
…………………………अरविन्द 
सोमवार, 21 अक्टूबर 2013
तुम दोनों
तुम दोनों -----
जैसे पुखराज की आसक्ति शनिवार, 19 अक्टूबर 2013
हम क्यों देखें
उनको हम क्यों  देखें जो चले नहीं दो कदम 
अपने पर हम क्यों न खोलें नापें खुला गगन। 
कौए ,गीदड़ ,हिरण साम्भर जीते पिता के घर 
शेर नहीं ताकता धरोहर ढूंढ़ लेता नव वन वर। 
गीदड़ बन अपना जीवन क्यों हम बर्बाद करें ?
जल्दी जल्दी इन शिखरों पर अपने कदम धरें. 
आओ ! भीतर छिपी शक्ति का करें अभी वरण 
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम ?
वर्षा ,आंधी ,ओले ,झंझा सब छाती पर सहने हैं 
ऊँचे टीले ,गहरे गह्वर नर ने ही तो गहने हैं। 
कापुरुष नहीं कर पाते जीवन में आत्म हवन 
न हो साथ कोई हो अपना अकेले जूझ पड़ेंगे 
भाव का मंथन कर जीवन अमृत पान करेंगे 
साहस अपना दिन धर्म हो संघर्षी हों चरण 
उनको हम क्यों देखें जो चले नहीं दो कदम। ……………अरविन्द 
संत और संतत्व
                                   संत और संतत्व 
भारत
 में सदा से संतों का महत्व रहा है। संतों ने देश के विकास में अभूतपूर्व 
योगदान भी दिया है। राष्ट्र भक्त ,देशभक्त और सदाचारी बलिदानियों की 
परम्परा के निर्माण में संतों के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता। यह भी
 दुर्भाग्यपूर्ण है कि जीवन के विविध क्षेत्रों में संतों के अवदान पर किसी
 भी विश्वविद्यालय में शोध की विस्तृत योजना का निर्माण नहीं किया क्योंकि 
हमने भारत की पुरा परम्परा में उपलब्ध ज्ञान से मुहं मोड़ लिया है। इस देश 
में ज्ञान विज्ञान की अनेक शाखाएँ थीं। आज  न समाज शास्त्र ,न साहित्य ,न 
धर्म और न ही मनोविज्ञान इस क्षेत्र में कोई खोज ,शोध ही कर रहा है। हमनें 
कुछ निकम्मे ,जाहिल और पाखंडियों को संतों की  पारंपरिक वेश भूषा में देख 
लिया और सत्य के अनुसंधान के सभी प्रयत्न बंद कर दिए। हमारी विचारधारा 
कितनी पंगु है ,इसको जानना कठिन नहीं है। 
हमें यह समझना चाहिए कि कथावाचकों और अपनी ही पूजा करवाने के  लिए उत्सुक लोगों को इस देश ने कभी संत नहीं माना . न ही पंडित और पुरोहित भी ज्ञानियों ,ऋषिओं और संतों की परम्परा में परिगणित हुए हैं। 
संत अंतर्गत साधक ,मौन चिन्तक ,और प्रयोगात्मक ऋषि रहे हैं ---इस और ध्यान देना आवश्यक है। ………… क्रमश :……………. अरविन्द 
गुरुवार, 17 अक्टूबर 2013
ग़ज़ल
भावों के जंगल के अजीब परिंदे हैं 
पर जला के अपने फिर मुस्कुराते हैं . 
किसी की आँख का पर्दा क्यों उठायें हम 
अंधों की बस्ती में दर्पण नहीं होते हैं। ………………. अरविन्द ग़ज़ल 
बुधवार, 16 अक्टूबर 2013
आवारा चिन्तन
                                         आवारा चिन्तन 
                                      सत्संग  का निहितार्थ मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013
हम कितने अच्छे होते थे
हम कितने अच्छे होते थे 
जब दांत हमारे सच्चे थे। 
हीरे मोती दमकते थे ,
मुस्काते थे ,बहलाते थे। 
वे दांत नहीं ,वे पत्थर थे ,
सब कुछ पीसते जाते थे। 
माता जब चुगती दाल सुघर 
फिर भी आ जाता कंकड़ पत्थर 
वे किर्च किर्च पिस जाते थे ,
जब दांत हमारे सच्चे थे। 
भटियारिन की भट्टी पर 
हम नित शाम को जाते थे 
पक्की मक्की के दानों को 
हम दांतों तले चबाते थे। 
बूढ़े हमको तब देख देख 
पछताते थे ,कुढ़ जाते थे ,
हम हँसते थे ,मुस्काते थे। 
जब दांत हमारे सच्चे थे ,
दस्सी,पंजी ओ अठन्नी को 
दुहरी तिहरी कर जाते थे। 
बर्फ के मोटे टुकड़ों को हम 
तड तड कर खा जाते थे। 
हम कितने अच्छे होते थे। 
अब बड़ी  मुसीबत भारी  है 
मुहं पोपल पोपल पोपल है 
स्वार्थी मित्रों की तरह 
दगा दे गए दांत, अब खोखल है। 
अब ठंडा भी कड़वा लगता है ,
अब मीठा भी कडुवा लगता है 
पकी कचोड़ी भाती है ,पर 
जख्म बड़े दे जाती है। 
गोलगप्पे ललचाते हें 
मसूड़े  सह नहीं पाते हैं। 
जब बच्चे दाने खाते हैं --
हम उठ छत पे आ जाते हैं। 
एक और मुसीबत भारी है 
भाषा नहीं रही शुद्ध ,लाचारी है। 
प,फ पर जीभ फिसल जाती 
य र ल व् सब फंसता है। 
तालव्य हुए अब सभी ओष्ट 
मूर्धन्यों के अब फटे हौंठ 
संध्यक्षरों पर जीभ तिलकती है 
हिन्दी अब हिब्रू लगती है। 
संस्कृत का है बुरा हाल 
संगीत हुआ अब फटे हाल 
तब मौनी बाबा हो जाता हूँ 
क्लिष्ट शब्दों को लिख कहता हूँ . 
अब जीवन का रस बीत गया 
न वक्ता ही रहा ,न भोक्ता ही रहा 
सब रस विरस ,नीरस ही हुआ 
दन्त हीन हुआ ,वेदान्त हुआ। 
अहंकार गया पानी भरने ,
व्याख्यान गया पानी भरने 
उपदेश सभी अब व्यर्थ हुए 
अब आत्म शोध के मार्ग खुले। 
अब अंतर चिंतन प्यारा है 
अब अंतर मंथन प्यारा है। 
वेदान्त हुआ ,वेदांत मिला 
आत्म दर्शन का द्वार खुला। ……………. अरविन्द 
गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013
आवारा चिन्तन
                                        आवारा चिन्तन 
भारतीय
 संस्कृति में दो अत्यन्त महत्वपूर्ण शब्द हैं ---विद्या और शिक्षा। आज इन 
दोनों शव्दों पर विचार करना इसलिए आवश्यक प्रतीत हो रहा है क्योंकि हमारे 
समस्त तथाकथित विद्या केंद्र अपना चरित्र और आधार खो चुके हैं। स्कूल 
,कॉलेज ,यूनिवर्सिटीज --सर्वत्र अकुशल प्रबंधन के कारण असुरक्षित अस्तित्व 
में जी रहे हैं। ईमानदारी और मूल्य -निष्ठां को संघर्षशील होना पद रहा है। 
मित्रो !बीमार व्यवस्था पर विचार करना भी जरूरी है क्योंकि हम कहीं पर भी स्वस्थ और सुरक्षित नहीं हैं। 
1 .  आज न धर्म स्वस्थ और सुरक्षित है क्योंकि वहां आसारामी वृति घुसपैठ कर चुकी है। 
2 . न राजनीति स्वस्थ है क्योंकि वहां असहाय मौन स्थापित कर दिया गया है। 
 3 . न ज्ञान सुरक्षित है क्योंकि साम्प्रदायिक चिन्तन  ने उसे खंडित कर दिया है। 
 4 .  न खान --पान सुरक्षित है क्योंकि वहां जहर भरा जा चुका है। 
 5 .  न प्रबन्धन स्वस्थ और सुरक्षित है क्योंकि वहां भेड़िया धसान और भ्रष्टाचरण प्रवेश कर चुका है। 
 6 .  न गलियाँ और सड़कें सुरक्षित हैं वहां बटमार ताक लगाए बैठे हैं। 
       
सोचिये तो सही कि हम कहाँ सुरक्षित हैं ----यह सब शिक्षा में मूल्यों के अभाव और गुणों की अनुपस्थिति के कारण तो नहीं कहीं ?………. अरविन्द 
मंगलवार, 8 अक्टूबर 2013
अरविन्द दोहे
अरविन्द दोहे 
मन्त्र जपे प्रभु मिले नहीं न तीरथ माहीं वास सोमवार, 7 अक्टूबर 2013
कुपित ग़ज़ल
कुपित ग़ज़ल 
हम अपने प्यारों के लिए गज़ल लिखते हैं मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013
खुल कर खूब हँसे हम .
कुर्सी पर टटुआ आ बैठा 
खुल कर खूब हँसे हम 
व्यवस्था का उठा जनाजा 
खुल कर खूब हँसे हम। 
चोर चोर मौसरे भाई 
मिल बैठ चखें मलाई 
घात लगा के माल उड़ाते 
बचा नहीं पाए अपना धन 
खुल कर खूब हँसे हम। 
भोले भाले साधु बनकर 
लुच्चे ही अब अच्छे बनकर 
टुच्चे सारे गुच्छे ले गए 
कुर्सी पर आ बैठे धम धम 
खुल कर खूब हँसे हम . 
कैसी लीला तेरी प्यारी 
कौए ने पिचकारी मारी 
गोपी हुई बेहाल बेचारी 
उल्लू खा गये माखन सारी 
टुकुर ताकते रह गये हम 
खुल कर खूब हँसे हम . 
प्रमाण पत्र ले झूठे सारे 
श्वेत केशी अध्यापक न्यारे 
गंभीर मुखौटे भर ले गये लोटे 
शिक्षक बन शौषण हैं करते 
नियम कर दिए सारे दफ़न 
खुल कर खूब हँसे हम। 
तिलक लगाये धूनी रमाते 
इच्छा पूरी के वारदाते 
कृष्ण रूप ले रास रचाते 
काम प्यारा चाम दिखाते 
राम नाम की चादर ओढ़े 
छुरी दिखाते चम चम चम 
खुल कर खूब हँसे हम। ……. अरविन्द 
 
बुधवार, 10 जुलाई 2013
यही तो...
बस ! यही तो अब  रोना है 
दागियों का सांसद होना है 
स्कूलों में कुटिलता पढ़ा  रहे 
प्रिंसिपलों का अप्रिंसिपल होना है ......अरविन्द 
गुरुवार, 4 जुलाई 2013
.हमारी जातिगत नपुंसकता ..
आज खबर सुन रहा था कि केदार नाथ में मृत शरीरों को कौए और कुते नोच रहे हैं
 ..सरकार कुछ नहीं कर रही .....मैं   हिन्दुओं और सनातन धर्मियों की 
मानसिकता पर सोचने लगा कि कैसी है यह कौम जो न तो  देवता की रक्षा कर रही 
है ,न ही तीर्थों की और न ही अपनी जाति की .बल्कि नपुंसकों के समान सरकारों
 की और देख रही है .हमारे सभी धर्म गुरु   ,सभी शंकराचार्य जो पूजा होनी 
चाहिए या नहीं ..इस विषय पर विवाद कर रहे हैं ..सभी बापू चुप हैं ...किसी 
ने भी जनता की सुध लेने की कोशिश नहीं की .हिन्दू गृहस्थ इन लोगों का पालन 
पोषण करता है ,इनमें से कोई भी न तो मंदिर के पुनर निर्माण के लिए आगे आया 
है न ही किसी ने शवों के दाह संस्कार की व्यवस्था में कोई योगदान दिया है 
,न कोई आन्दोलन  हिन्दू  पीड़ितों के लिए हुआ और  न मंदिर के लिए 
....उपदेशकों की इस लम्बी चोडी जमात को क्या हमने चाटना है ...लोग खुद जूझ 
रहे हैं और सरकार बेशर्म ताक  रही है ..क्यों न हम इन तथाकथित 
धर्माधिकारियों का तिरस्कार करें ..यह संकट, जाति की परीक्षा है ,जिसमें हम
 और हमारे  समस्त पीठाधीश्वर बुरी तरह   से असफल सिद्ध हुए हैं ...यह एक 
पराजित और त्रस्त कौम की त्रासदी है ....हमें राजनीतिज्ञों को छोड़ कर अपने 
आप और अपने धर्म गुरुओं की क्लीवता के बारे में सोचना होगा .संसार में शायद
 ही कोई कौम ऐसी हो जिसने  स्वयं को लुप्त कर देने और तिल तिल  कर नष्ट 
होने के साथ समझोता कर लिया हो ...जिस जाति के साधू ही माया के प्रपंच से 
मुक्त नहीं हो पाए वे किसी का क्या उद्धार करेंगे ?... ..अब इन लोगों को 
प्रणाम तक करने को मन नहीं चाहता ..ये सभी संकट के समय हमें मंझधार में छोड़
 देने वाले हैं ...अमानुष ................अरविन्द  
शनिवार, 22 जून 2013
केदार त्रासदी ...
केदार त्रासदी ...
     रहिमन विपदा हू भली जो थोड़े दिन होए .गुरुवार, 20 जून 2013
केदार की त्रासदी
केदार की त्रासदी ...प्रकृति का दोष नहीं है ....
शनिवार, 8 जून 2013
गजल
गजल 
खामखाह लोगों को तराशा न कीजिये 
.
मंगलवार, 4 जून 2013
अरविन्द कुण्डलियाँ
कालेज की अब मैं कहूँ बड़ी अनोखी बात
इक दूजे के प्रति सब रचते घात प्रतिघात .
रचते घात प्रतिघात प्रकांड पंडित हैं रहते
ज्ञान झौंक दिया आग कभी उठते हैं गिरते
ख रहे अरविन्द कवि मिले नित नई नोलेज
काँव काँव सब कर रहे,अपना ऐसा है कोलेज .
.............................................................
प्रिंसिपल ऐसे मिले हमें, न सिद्धांत न ज्ञान
लड़वा रहे एक दूजे को अपनी बघारें शान .
अपनी बघारें शान ,विप्र संग कर ली मिताई
धन गटक रहे मासूमों के नित छकें मलाई .
कहे अरविन्द कवि चतुर्थ श्रेणी रोये प्रतिपल
फाइलों के ढेर पर बैठा ठाला अपना प्रिंसिपल .
.....................................................................
विद्वान हमें नहीं चाहिए ,चाहिए चापलूस
डिग्री उसकी बड़ी हो ,पर तलवे चाटे खूब .
तलवे चाटे खूब ,वाही प्रिंसिपल बन जावे
प्राइवेट विद्यालय में ,झूला जो खूब झुलावे.
कहे अरविन्द कवि राय सजाये ज्ञान दूकान
नव रत्नों में बैठ सज रहे चापलूस विद्वान .
.....................................................................
डोनेशन ,ग्रांट पर चलाओ शिक्षा की दुकान
यू .जी .सी .से धन मिले हो जाओ धनवान .
हो जाओ धनवान ,भाड़ में जाएँ सब बच्चे
हमें चाहिए फ़ीस बस ,बन जाएँ चाहे लुच्चे
कहे अरविन्द कविराय पायेगा वही प्रमोशन
हेरा फेरी जो करे , भरे नित डिब्बा डोनेशन
.......................................................................अरविन्द
....................................................................
इक दूजे के प्रति सब रचते घात प्रतिघात .
रचते घात प्रतिघात प्रकांड पंडित हैं रहते
ज्ञान झौंक दिया आग कभी उठते हैं गिरते
ख रहे अरविन्द कवि मिले नित नई नोलेज
काँव काँव सब कर रहे,अपना ऐसा है कोलेज .
.............................................................
प्रिंसिपल ऐसे मिले हमें, न सिद्धांत न ज्ञान
लड़वा रहे एक दूजे को अपनी बघारें शान .
अपनी बघारें शान ,विप्र संग कर ली मिताई
धन गटक रहे मासूमों के नित छकें मलाई .
कहे अरविन्द कवि चतुर्थ श्रेणी रोये प्रतिपल
फाइलों के ढेर पर बैठा ठाला अपना प्रिंसिपल .
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विद्वान हमें नहीं चाहिए ,चाहिए चापलूस
डिग्री उसकी बड़ी हो ,पर तलवे चाटे खूब .
तलवे चाटे खूब ,वाही प्रिंसिपल बन जावे
प्राइवेट विद्यालय में ,झूला जो खूब झुलावे.
कहे अरविन्द कवि राय सजाये ज्ञान दूकान
नव रत्नों में बैठ सज रहे चापलूस विद्वान .
.....................................................................
डोनेशन ,ग्रांट पर चलाओ शिक्षा की दुकान
यू .जी .सी .से धन मिले हो जाओ धनवान .
हो जाओ धनवान ,भाड़ में जाएँ सब बच्चे
हमें चाहिए फ़ीस बस ,बन जाएँ चाहे लुच्चे
कहे अरविन्द कविराय पायेगा वही प्रमोशन
हेरा फेरी जो करे , भरे नित डिब्बा डोनेशन
.......................................................................अरविन्द
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ग़ज़ल
पाँव भी सुंदर तेरे पायल भी तेरी सुंदर
तू झूम झूम नाचे कत्थक भी तेरा सुंदर .
आँखों में तेरे जानम मस्ती का समंदर है
पलकें भी तेरी सुंदर ,नजरें भी तेरी सुंदर .
नागिन सी तेरी वेणी लहरा कर झूमती है
नितम्बिनी तू सुंदर गजगामिनी तू सुंदर .
होंठ फूल गुलाबी ,लगते हैं मुझे शराबी
रस भी तेरा सुंदर ,मुस्कान तेरी सुंदर .
कटि केहरि लरजती कुछ कह कर जाती है
शरमाना तेरा सुंदर ,लहराना तेरा सुंदर .
सुकंठ तेरे माला ,कुचद्व्य को चूमे है
नाभि भी तेरी सुंदर ,त्रिवली भी तेरी सुंदर .
प्रभु की लिखी कविता तू मोहे भासती है
श्यामा सी तू सुंदर ,कृष्णा सी तू सुंदर ,............अरविन्द
तू झूम झूम नाचे कत्थक भी तेरा सुंदर .
आँखों में तेरे जानम मस्ती का समंदर है
पलकें भी तेरी सुंदर ,नजरें भी तेरी सुंदर .
नागिन सी तेरी वेणी लहरा कर झूमती है
नितम्बिनी तू सुंदर गजगामिनी तू सुंदर .
होंठ फूल गुलाबी ,लगते हैं मुझे शराबी
रस भी तेरा सुंदर ,मुस्कान तेरी सुंदर .
कटि केहरि लरजती कुछ कह कर जाती है
शरमाना तेरा सुंदर ,लहराना तेरा सुंदर .
सुकंठ तेरे माला ,कुचद्व्य को चूमे है
नाभि भी तेरी सुंदर ,त्रिवली भी तेरी सुंदर .
प्रभु की लिखी कविता तू मोहे भासती है
श्यामा सी तू सुंदर ,कृष्णा सी तू सुंदर ,............अरविन्द
सोमवार, 3 जून 2013
कलयुगी संहिता
                    कलयुगी संहिता
भागवत को पढ़ लिया भागवत न हो सके .
शतश: पढ़ी रामायण पर राम के न हो सके .
काम के चाकर बने दुर्वासनाओं में हम पगे .
न इधर के ही रहे ,न उधर के हम हो सके .
कर्म ऐसे किये कि रावण भी शरमा गया .
कंस फीका पड़ गया ह्रिन्याक्श लजा गया .
संतत्व के आवरण में हम पर द्रव्य छक गए .
स्वार्थ के हिमवान की चोटी पर हम चढ़ गए .
दुःख दैन्य पीड़ा संताप अवसाद सबको दिया .
दूसरा भी अपना है ,स्वीकार न हमने किया .
भ्रष्टता के दुष्टता के आसुरी भावनाओं के -
हम खिलोने बने और नाचे दुरात्माओं से .
सदात्मा का तिलक माथे पर न हम लगा सके
भागवत को पढ़ लिया, भागवत न हो सके .
प्रेम पाखण्ड हमारा ,परमार्थ ईर्ष्या द्वेष है .
विष पूर्ण घट का आवरण हिरण्य कोष है .
पंथ न अपना कोई न दीन ,न मजहब हुआ .
दूसरों को दुःख देना ,यही तो कर्तव्य हुआ .
क्लेश में जन्में पले हम क्लेश ही माता पिता
क्लेश ही जीवन हमारा ,क्लेश ही दाता हुआ .
क्लेश ही कलयुग का मंत्र ,क्लेश ही नामदान
क्लेश के ही कर्म सारे ,क्लेश ही महान दान .
सुख ,सौन्दर्य ,समाधि ,शिव न हम जी सके .
शतश: पढ़ी रामायण हम राम के न हो सके .
पर पीड़ा है साधना ,पर दुःख अपना देवता.
दूसरों को रोता देख, हँसता है अपना देवता .
क्यों स्वर्ग की इच्छा करें क्यों पुण्य की कामना
दूसरे को दुःख देना यही हमारी हठ साधना .
माता ,पिता, भाई ,बन्धु जगत सब व्यर्थ है
हम ही समर्थ ,हम ही समर्थ, हम यहाँ समर्थ हैं .
परदोष -दर्शन ही हमारा चिरंतन महा यज्ञ है
पर निंदा आहुतियाँ ,पर सर्वस्व हरण हव्य है .
होता है हम स्वार्थ के, अध्वर्यु आत्म पूजन के
ब्रह्मा आत्म सुख के हम ,पुरोहित मनभावन के .
मृत्यु निश्चित है यहाँ पर, मरण शील संसार है
क्यों न करें आत्म सुख कामना ये ही व्यवहार है .
हमें नहीं चिंता कि हम भागवत न हो सके
शतश: पढ़ी रामायण ,हम राम के न हो सके .
निराश हो कर कृष्ण को भी यहाँ से जाना पड़ा
मौन होकर मर्यादित राम को सरयू गहना पड़ा .
दूसरों को सुख देकर क्या मिला अवतार को ?
थोड़ी पूजा ,धूप बत्ती मिला रुक्ष प्रशाद हो ..
एक कौन स्थिर किया और जोड़ दिए हाथ दो
सर झुकाया आरती की भिड़ा दिए किवाड़ दो .
मन लगाया दस्यु युक्ति में ,मंत्र सारे जप लिए
फिर पाप सारे कर लिए ,दुष्कर्म सारे कर लिए .
क्या करें भगवान् का जो दीखता नहीं संसार में
खुदा ही के नाम पर सब पाप होते हैं संसार में .
फिर क्यों डरें हम कुकृत्य से ,असत दुष्कर्म से .
जीना यहाँ ,मरना यहाँ स्वप्न व्यर्थ स्वर्ग के .
एक ही है सत्य सारे जगत में जो है जागता
हम ही अपना कर्म हैं और हम ही अपने भोक्ता .
पुण्य कर्मा दुःख भोगें या सहें अपघात वे
राम के चाहे बने या हो जाएँ भागवत वे .
कर्म उनका उन्हें मिलेगा फल भी वही भोगें
स्वर्ग में रहें ,वैकुण्ठ या रहें गो धाम में
हमें नहीं चिंता कि हम नित नर्क वास करें
जगत भी तो नर्क क्यों मृगतृष्णा दुःख सहें .
क्यों न भोगें देह सुख क्यों न मन मानी करें
जीना अपना है तो चाहे उल्टा जीयें सीधा मरें .
निन्दित जग में भले हम ,जीभ का रस मिले
रूपसी नारी मिले और आँख का भी सुख मिले
इन्द्रियों का शक्ति से रस पूरा ही निचोड़ लें
गात कोमल सा मिले ,देह का सुख भोग लें .
यही दर्शन है जगत का ,यही जीवन ज्ञान है
सुख अपरिमित, व्यक्ति सुख ही महान है
भागवत भी यहाँ के धर्म का पाखण्ड है
राम कथा धन -साधना का स्रोत प्रचंड है .
राम इतना नहीं प्रिय धन धाम जितना है प्रिय
भागवत की ओट में केवल गोपियाँ ही हैं प्रिय
यही कलयुग मन्त्र ,यही कलयुग साधना
संहिता कलयुग की ,यही युग की आराधना ............अरविन्द
भागवत को पढ़ लिया भागवत न हो सके .
शतश: पढ़ी रामायण पर राम के न हो सके .
काम के चाकर बने दुर्वासनाओं में हम पगे .
न इधर के ही रहे ,न उधर के हम हो सके .
कर्म ऐसे किये कि रावण भी शरमा गया .
कंस फीका पड़ गया ह्रिन्याक्श लजा गया .
संतत्व के आवरण में हम पर द्रव्य छक गए .
स्वार्थ के हिमवान की चोटी पर हम चढ़ गए .
दुःख दैन्य पीड़ा संताप अवसाद सबको दिया .
दूसरा भी अपना है ,स्वीकार न हमने किया .
भ्रष्टता के दुष्टता के आसुरी भावनाओं के -
हम खिलोने बने और नाचे दुरात्माओं से .
सदात्मा का तिलक माथे पर न हम लगा सके
भागवत को पढ़ लिया, भागवत न हो सके .
प्रेम पाखण्ड हमारा ,परमार्थ ईर्ष्या द्वेष है .
विष पूर्ण घट का आवरण हिरण्य कोष है .
पंथ न अपना कोई न दीन ,न मजहब हुआ .
दूसरों को दुःख देना ,यही तो कर्तव्य हुआ .
क्लेश में जन्में पले हम क्लेश ही माता पिता
क्लेश ही जीवन हमारा ,क्लेश ही दाता हुआ .
क्लेश ही कलयुग का मंत्र ,क्लेश ही नामदान
क्लेश के ही कर्म सारे ,क्लेश ही महान दान .
सुख ,सौन्दर्य ,समाधि ,शिव न हम जी सके .
शतश: पढ़ी रामायण हम राम के न हो सके .
पर पीड़ा है साधना ,पर दुःख अपना देवता.
दूसरों को रोता देख, हँसता है अपना देवता .
क्यों स्वर्ग की इच्छा करें क्यों पुण्य की कामना
दूसरे को दुःख देना यही हमारी हठ साधना .
माता ,पिता, भाई ,बन्धु जगत सब व्यर्थ है
हम ही समर्थ ,हम ही समर्थ, हम यहाँ समर्थ हैं .
परदोष -दर्शन ही हमारा चिरंतन महा यज्ञ है
पर निंदा आहुतियाँ ,पर सर्वस्व हरण हव्य है .
होता है हम स्वार्थ के, अध्वर्यु आत्म पूजन के
ब्रह्मा आत्म सुख के हम ,पुरोहित मनभावन के .
मृत्यु निश्चित है यहाँ पर, मरण शील संसार है
क्यों न करें आत्म सुख कामना ये ही व्यवहार है .
हमें नहीं चिंता कि हम भागवत न हो सके
शतश: पढ़ी रामायण ,हम राम के न हो सके .
निराश हो कर कृष्ण को भी यहाँ से जाना पड़ा
मौन होकर मर्यादित राम को सरयू गहना पड़ा .
दूसरों को सुख देकर क्या मिला अवतार को ?
थोड़ी पूजा ,धूप बत्ती मिला रुक्ष प्रशाद हो ..
एक कौन स्थिर किया और जोड़ दिए हाथ दो
सर झुकाया आरती की भिड़ा दिए किवाड़ दो .
मन लगाया दस्यु युक्ति में ,मंत्र सारे जप लिए
फिर पाप सारे कर लिए ,दुष्कर्म सारे कर लिए .
क्या करें भगवान् का जो दीखता नहीं संसार में
खुदा ही के नाम पर सब पाप होते हैं संसार में .
फिर क्यों डरें हम कुकृत्य से ,असत दुष्कर्म से .
जीना यहाँ ,मरना यहाँ स्वप्न व्यर्थ स्वर्ग के .
एक ही है सत्य सारे जगत में जो है जागता
हम ही अपना कर्म हैं और हम ही अपने भोक्ता .
पुण्य कर्मा दुःख भोगें या सहें अपघात वे
राम के चाहे बने या हो जाएँ भागवत वे .
कर्म उनका उन्हें मिलेगा फल भी वही भोगें
स्वर्ग में रहें ,वैकुण्ठ या रहें गो धाम में
हमें नहीं चिंता कि हम नित नर्क वास करें
जगत भी तो नर्क क्यों मृगतृष्णा दुःख सहें .
क्यों न भोगें देह सुख क्यों न मन मानी करें
जीना अपना है तो चाहे उल्टा जीयें सीधा मरें .
निन्दित जग में भले हम ,जीभ का रस मिले
रूपसी नारी मिले और आँख का भी सुख मिले
इन्द्रियों का शक्ति से रस पूरा ही निचोड़ लें
गात कोमल सा मिले ,देह का सुख भोग लें .
यही दर्शन है जगत का ,यही जीवन ज्ञान है
सुख अपरिमित, व्यक्ति सुख ही महान है
भागवत भी यहाँ के धर्म का पाखण्ड है
राम कथा धन -साधना का स्रोत प्रचंड है .
राम इतना नहीं प्रिय धन धाम जितना है प्रिय
भागवत की ओट में केवल गोपियाँ ही हैं प्रिय
यही कलयुग मन्त्र ,यही कलयुग साधना
संहिता कलयुग की ,यही युग की आराधना ............अरविन्द
रविवार, 2 जून 2013
कुण्डलिया छन्द
कुण्डलिया छन्द 
कविताओं के राज में नहीं पड़ा अकाल 
मुहब्बत ही इबादत है .
इबादत ही मुहब्बत है ,मुहब्बत ही इबादत है .
डर डर कर कभी कोई मुहब्बत कर नहीं पाया 
मुहब्बत बंदगी है वहाँ खुदा माशूक सलामत है ..........अरविन्द 
......................कवी श्री सूद के लिए ....................
शनिवार, 1 जून 2013
झूठ कहते हैं कि आदमी में ईश्वर का वास है ,
असभ्य जंगली जानवर आदमी का आवास है,
क्रूरता ,पशुता ,आक्रमण ,भय और आतंक में
कंठी ,तिलक ,छाप ,माला छद्म परिहास है
यह तरक्की दीखती जो जगत के आकाश में
विज्ञान के प्रकाश में ,ज्ञान के आभास में --
अहंकार के परचम लहरा रहा है आदमी .
दंभ और पाखण्ड मिले हैं इसे अभिशाप में
अभिशप्त से करुणा ,कृपा ,प्रेम की इच्छा ?
सहानुभूति ,दया ,ममता ,परमार्थ की इच्छा ?
आकाश कुसुम मिला क्या कभी आकाश में ,
नहीं रह सकता ईश्वर इस आदमी के पास में!
ईश्वर बेबस ,असहाय ,मौन कर बद्ध नहीं,
असभ्य जंगली जानवर आदमी का आवास है,
क्रूरता ,पशुता ,आक्रमण ,भय और आतंक में
कंठी ,तिलक ,छाप ,माला छद्म परिहास है
यह तरक्की दीखती जो जगत के आकाश में
विज्ञान के प्रकाश में ,ज्ञान के आभास में --
अहंकार के परचम लहरा रहा है आदमी .
दंभ और पाखण्ड मिले हैं इसे अभिशाप में
अभिशप्त से करुणा ,कृपा ,प्रेम की इच्छा ?
सहानुभूति ,दया ,ममता ,परमार्थ की इच्छा ?
आकाश कुसुम मिला क्या कभी आकाश में ,
नहीं रह सकता ईश्वर इस आदमी के पास में!
ईश्वर बेबस ,असहाय ,मौन कर बद्ध नहीं,
पाखण्ड पूजा अर्चना ,पाखण्ड इसके पाठ हैं
दो लोटा जल ,खंडित पुष्प कर में लिए
चढ़ पहाड़ों के शिखर पर नाचता .
विक्षिप्त नर ऐसे में कैसे रह सके परमात्मा
हवा बहती , किरण बहती , जल नहीं रुकता .
परमात्मा को योग ,जप ,तप ,यज्ञ न चाहिए
पेड़ में ,हर पत्ते में है ईश्वर का वास .
प्रेम सागर सा उदारता आकाश सी चाहिए
गुरुवार, 23 मई 2013
आदमी
न समझा है न समझ सकता है आदमी 
न बदला है न बदल सकता है  आदमी .. कैसे कोई कहे की जीवन जी रहा है आदमी
सोमवार, 20 मई 2013
पहेलियाँ
पहेलियाँ 
1 .  प्रभु को वह लेकर आवे .............................................
...............................................
................................................
          जीवन में रस भरती है .
          जिस दिन चुप कर जायेगी .
          नींद नहीं खुल पाएगी .
.................................................
.................................................
5.       बिल्कुल सीधा साधा है .
          दुष्ट उसे न भाता है .
          सुरक्षा में सदा सहायी 
           आगे बढ़ कर करे लड़ाई .
.................................................
.................................................
6.       मौका मिलते छुरी चलावे 
          अपना हित ही उसको भावे .
          संकट में न करे सहायता .
           पहचान उसे तुम मेरे भ्राता .
...................................................
...................................................
7.        दिन में स्वप्न दिखावे जो 
            रातों को जगावे वोह 
            हाथ नहीं कभी आवे जो 
            बूझ इसे जो पायेगा 
            मित्र वही कहलायेगा .
.....................................................
.....................................................
8.        खिलखिलाता खिलता है .
           इतराता झूला करता है .
            कुदरत रंग उसे है देती 
            इठलाता मुस्काता है .
            वेणी उसके मन को भावे 
            हर ललना का जी ललचावे .
......................................................
......................................................
9.        प्रथम पाँव पर गिरता है 
            कानों में रस भरता है .
           चुपके से फिर चूंटी काटे 
            अन्धकार में काटे चाटे ......अरविन्द 
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