अरविन्द दोहे -----
 निंदा स्तुति को छोड़ कर  गहा चिंतन का हाथ
 अपनी अपनी रूचि से , सब करते रहते बात।
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 जिसकी जहाँ तक पहुँच है वहां तक जाने सत्य
 सबकी शक्ति अपनी है , जितनी है सामर्थ्य।
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 मूर्ख अपनी बात पर अड़े बैल समान
 विवेकी जान के लिए मरणान्तर है ज्ञान।
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 दुनिया सब व्यवसाय है ,सबने खोली दूकान
 अपने अपने माल के सब करते हैं गुण गान।
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 प्रभु तक जाने के लिए , नाहीं रोके अहंकार
 अज्ञान मूढ़ता दम्भ ने , रुद्ध किये सब द्वार।
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 प्रकृत माया लांघना , बिलकुल नहीं कठिन
 मन की माया पार करे ,यही कठिन यत्न  ।
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 व्यर्थ जगत के मुद्दे सब , व्यर्थ तर्क वितर्क
 लीला का यह जगत है , जो जाने वह सतर्क।
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 उपदेशक जो कह रहे , पूछो उनसे तू  धाय
 अपना आप जाना नहीं , कैसे प्रभु को पाय।
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 जिस दिन जग को देखना समझोगे हे मीत
 सुख दुःख कष्ट क्लेश सब जाओगे तुम जीत।
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 अपना यहां कोई नहीं , न कोई अपना होय
 अपने को जो पा गया , अपना अपना होय। ………… अरविन्द