रविवार, 18 मई 2014

आओ !

आओ !
तुम्हें अपने एकांत के
अंतरंग कक्ष में ले जाऊं।
शीशे की दीवार से बाहर की
दुनिया दिखाऊं।
मौन के साम्राज्य में चुप बैठे
परिंदे की अंतर्कथा
सुनाऊँ।
आओ ! अपने एकांत में ले जाऊं।
जहाँ भागते हुए लोगों की
भीड़ नहीं ,
सब अकेले हैं।
अलग -थलग लोगों के
अपने -अपने झमेले हैं।
जिजीविषा है
चिकीर्षा है
बुभुक्षा है ,दिदृशा है।
गगनचुम्बी इमारतों में
भटकते हैं आदमी।
आदमी के भीतर यंत्रों का
नाचता संगीत सुनाऊँ।
आओ ! अंतरंग एकांत में ले जाऊं।
जीने का संघर्ष जहाँ
रोटी ने छीना है ,
आनंद के बिंदु पर
सुविधाओं का परदा झीना है।
कबूतरों के दबड़ों में दुबका है आदमी।
सुख के साधनों पर
नियमों की नीतियां सवार हैं
राजनीति के चक्रव्यूह की
वीथियां दुर्निवार हैं --
मारीचिका में तड़पते
हिरने की कथा सुनाऊँ।
आओ ! तुम्हें सभ्यता के
एकांत में ले जाऊं। …………… अरविन्द

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