मंगलवार, 20 मई 2014

ॐ शांति ! शांति ! शांति !........2..

ॐ शांति ! शांति ! शांति !
भारतीय चिंतन धारा में हम प्रत्येक मन्त्र के बाद हम शांति शब्द का उच्चारण करते हैं। हमें बताया गया है की शांति हमारी आत्मा की मांग है। आत्मा निर्विकल्पिक रूप से शान्तिकामी है। इन्द्रियों की संगति और बाहरी परिवेश की संघर्षमयी स्थितियां , नित्य की अनित्य आवश्यकताएं ,दैहिक अपरिहार्यताएं और नैरन्तर्य की व्यस्तता हमारी मानसिक शांति में व्याघात उत्पन्न करती है। शायद इसीलिए हम भारतीय शान्तिकामी हैं। अपने मन और आत्म से बातचीत करना भी तो एक प्राकृतिक कर्म है ,इसीलिए हम भी अक्सर एकांत की इच्छा करते हैं। शांत बगीचे की तलाश में निकलते हैं। परन्तु यहां आस्ट्रेलिया में अद्भुत शांति के दर्शन कर रहा हूँ। हम विक्टोरिया में रुके हुए हैं। यहां घर तो अनेक हैं ,पर कहीं कोई शोर नहीं। सारा मोहल्ला चुप है ,किसी भी घर से न बच्चों की किलकारियाँ सुनाई पड़ रही हैं , न स्त्रियों की बातचीत सुन पा रहा हूँ ,न वृक्षों पर कोई चिड़िया ही चहक रही है ,न कोई वृद्ध किसी बालक पर खीझ उतार रहा है। अद्भुत शांति है।
शांति वस्तुतः आत्मसाक्षत्कार का साधन है। इस प्रदेश की अद्भुत शांति मुझे सोचने को बाध्य करती है कि क्या यहाँ के लोग इतने आत्म -तुष्ट हैं कि उन्हें कोई जिज्ञासा ही नहीं रही ? इतने आत्म -निर्भर हैं कि इन्हें किसी दूसरे की आवश्यकता ही नहीं ? इतने आत्म -केंद्रित हैं कि हमारे सभी कवि बेचारे पीछे छूट गए हैं। न कहीं कोई रेडियो बज रहा है ,न कहीं कोई चीखता चिल्लाता है ---बस केवल हवा की सनसनाहट है ,पत्तियों का हिलना है ,वृक्षों का झूलना है ,पत्तों का कांपना है ,बादल का उड़ना है ---शेष शान्ति है।
मुझे अब तक कहीं किसी गली में बतियाते हुए युवा नहीं मिले ,कहीं इठलाती हुई नटखट बच्चों की कोई टोली नहीं दिखी , न ही कहीं अभी तक मैने वृद्धायों को बातचीत करते हुए देखा। सब अपने अपने में तल्लीन ,अपने में बंद ,खिड़कियां बंद ,दरबाजे बंद ,मुस्कराहट हीन चेहरे।
मुझे अपना होशियारपुर याद आ रहा है। सूरज के आने से पहले सैर के लिए भागते लोग , गलियों में भौंकते कुत्ते , आँगन बुहारती स्त्रियां , बच्चों की चिल्ल्पों , कारों और स्कूटरों की दौड़ , हलवाइयों की दुकानों की भीड़ , छत्तों पर टहलते लोग ,एक दूसरे के घरों की ताक - झांक करती आँखें , मंदिरों में घंटियों के स्वर, गुरुवाणी के गीत -संगीत बहुत कुछ याद आ रहा है।
शान्तिकामी भारत की अंतरंग आत्मीयता और परिचय के शांत मौन में लिप्त विदेशी मानसिकता --- पूर्व और पश्चिम के सामाजिक चिंतन को प्रत्यक्ष रूप से समझना जरुरी हो चुका है। क्योंकि जीवन -दर्शन भिन्न है। मनुष्य चाहे पूर्व में जन्मे या पश्चिम में --प्रक्रिया एक जैसी है ,तो जीवन पद्धति के दृष्टिकोण में अंतर का मूल जानना भी आवश्यक है। भौतिक और अभौतिक में वरेण्यता कहाँ हो ---निश्चय जरुरी है। -------------------------------२ -------------अरविन्द

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