हम कितने अच्छे होते थे 
जब दांत हमारे सच्चे थे। 
हीरे मोती दमकते थे ,
मुस्काते थे ,बहलाते थे। 
वे दांत नहीं ,वे पत्थर थे ,
सब कुछ पीसते जाते थे। 
माता जब चुगती दाल सुघर 
फिर भी आ जाता कंकड़ पत्थर 
वे किर्च किर्च पिस जाते थे ,
जब दांत हमारे सच्चे थे। 
भटियारिन की भट्टी पर 
हम नित शाम को जाते थे 
पक्की मक्की के दानों को 
हम दांतों तले चबाते थे। 
बूढ़े हमको तब देख देख 
पछताते थे ,कुढ़ जाते थे ,
हम हँसते थे ,मुस्काते थे। 
जब दांत हमारे सच्चे थे ,
दस्सी,पंजी ओ अठन्नी को 
दुहरी तिहरी कर जाते थे। 
बर्फ के मोटे टुकड़ों को हम 
तड तड कर खा जाते थे। 
हम कितने अच्छे होते थे। 
अब बड़ी  मुसीबत भारी  है 
मुहं पोपल पोपल पोपल है 
स्वार्थी मित्रों की तरह 
दगा दे गए दांत, अब खोखल है। 
अब ठंडा भी कड़वा लगता है ,
अब मीठा भी कडुवा लगता है 
पकी कचोड़ी भाती है ,पर 
जख्म बड़े दे जाती है। 
गोलगप्पे ललचाते हें 
मसूड़े  सह नहीं पाते हैं। 
जब बच्चे दाने खाते हैं --
हम उठ छत पे आ जाते हैं। 
एक और मुसीबत भारी है 
भाषा नहीं रही शुद्ध ,लाचारी है। 
प,फ पर जीभ फिसल जाती 
य र ल व् सब फंसता है। 
तालव्य हुए अब सभी ओष्ट 
मूर्धन्यों के अब फटे हौंठ 
संध्यक्षरों पर जीभ तिलकती है 
हिन्दी अब हिब्रू लगती है। 
संस्कृत का है बुरा हाल 
संगीत हुआ अब फटे हाल 
तब मौनी बाबा हो जाता हूँ 
क्लिष्ट शब्दों को लिख कहता हूँ . 
अब जीवन का रस बीत गया 
न वक्ता ही रहा ,न भोक्ता ही रहा 
सब रस विरस ,नीरस ही हुआ 
दन्त हीन हुआ ,वेदान्त हुआ। 
अहंकार गया पानी भरने ,
व्याख्यान गया पानी भरने 
उपदेश सभी अब व्यर्थ हुए 
अब आत्म शोध के मार्ग खुले। 
अब अंतर चिंतन प्यारा है 
अब अंतर मंथन प्यारा है। 
वेदान्त हुआ ,वेदांत मिला 
आत्म दर्शन का द्वार खुला। ……………. अरविन्द