मंगलवार, 8 जनवरी 2013

,संतों के विषय में

संतों के चरित्र पर विचार करना आवश्यक हो गया है .आज फिर आसा राम बापू के वक्तव्य ने ,संतों के विषय में कुछ ... लिखने के लिए बाध्य किया है .राजनीतिज्ञों के बारे में तो सब सोचते हैं ..सामाजिक स्वास्थ्य के लिए इन बेषधारी मायाजन्य विभूतियो के विषय में भी सोचिये .आज इस बापू ने मौज में कुछ कहा ..इन्हें यह बताना जरूरी है कि मौज का अर्थ अहंकार नहीं होता ....मौज निर्मल चित में उतरी वह परावाणी है जहाँ परमात्मा सबके कल्याण के लिए कहता है ...इस तथ्य को यह बापू नहीं जनता ...अत : अब परमतत्व ,संतत्व ,अध्यात्म ,भक्ति,  साधना और पद्धति इत्यादि पर तटस्थ भाव से विचार किया जाये ....आज कल के संत और राजनीतिज्ञ अधिक से अधिक लोगों को अपनी और आकर्षित करना चाहते हैं ...इन दोनों में कोई अंतर नहीं रहा ...दोनों का अहंकार ,दोनों की कामनाएं ,दोनों का आत्म -प्रदर्शन ,
दोनों की बुभुक्षा ,दोनों की माया ,दोनों की अर्थ- लालसा ,दोनों का महाराजत्व ,दोनों की त्यागहीन जीवन -पद्धति ,दोनों की मनोनुकूल उद्भावनाएँ ,दोनों का भेद वादी दर्शन ,दोनों की चमत्कार  प्रियता एक जैसी है . तो क्यों न आवरण मुक्त हो कर अब संतत्व के विषय में सोचा जाये .?.

आवरणरहित होना सत्य की अपरिहार्यता है , शास्त्रों में ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता है क़ि परमात्म प्राप्ति या भक्ति या आराधना ,या इष्ट प्रेम या पूजन  अर्चन के लिए किसी गुरु अथवा संत अथवा किसी माध्यम अथवा किसी तीसरे की आवश्यकता है .केवल हठ योग ,तंत्र साधना ,श्मशान साधना ,भूत  प्रेत साधना आदि के लिए गुरु आवश्यक हो सकता है ...परन्तु ये साधनाएँ भक्ति नहीं और न ही इन साधनाओं का उद्देश्य परमात्म प्राप्ति है .उन भक्तों की एक विस्तृत सूची है जिन्होंने बिना किसी माध्यम से परम तत्व को अधिगत किया .

परम तत्व को जानना ,जान कर पाना और पाकर कृत -कृत्य हो आत्म -तुष्ट हो जाना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य नहीं है और न ही परमतत्व कोई ऐसा साधन है जिससे हम सुखोपभोग की समस्त सामग्री को एकत्रित करें  अथवा ऐन्द्रिय तुष्टि की पुष्टि के लिए प्रार्थनारत  रहें .हमें उस अज्ञात को ज्ञात करने के लिए प्रकृति प्रदत इन्द्रियों की पगडंडियो से मुड़ना होगा और अपने ही समक्ष उठे प्रश्नों को ईमानदारी से खंगालना होगा .

जो असीम है क्या उसका हमारी समझ की सीमा में आना संभव है ? जो काल द्वारा रचित है उसके माध्यम से कालातीत का अनुसंधान करना क्या संभव है ? जिसका न आदि है न अन्त है क्या उसे किसी प्रकार की साधना से साधा जा सकता है ?क्या हम अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं के जाल में उस असीम सत्य को पकड़ सकते हैं ? इन प्रश्नों के आधार पर विदितव्य है कि जो कुछ हम समझ में पकड़ पाते हैं ,वह हमारे मन को पहले से ही ज्ञात होता है .इस आधार पर उस अज्ञात को पकड़ना ज्ञात के लिए असंभव है . वह नामातीत है ,रूपातीत है ,शब्दातीत है ,अनुभवातीत है ,व्याख्यातीत है ,बुध्यातीत है ,इन्द्रियातीत है ,मनातीत और प्रकाशातीत है .इसलिए उसे ज्ञात की गति से ज्ञात नहीं किया जा सकता . क्योंकि ज्ञात केवल विचार की अवस्था है और विचार मे स्थाई नवलता नहीं होती .इसीलिए उसे विचारातीत भी कहा जाता है .

हम कभी कभी उसे पाने के लिए स्वयं पर  स्वयं द्वारा निर्धारित अनुशासन का नियोजन करते हैं .त्याग ,अनासक्ति ,कर्म -काण्ड ,सद्गुण साधन आदि तत्वों से संलाप करते हैं .ध्यान रखना चाहिए कि ये सभी तत्व विचार साधित  और मनोद्भूत हैं ---इसीलिए ये माया हैं .

आजकल के संत क्या हमें इसी माया की कुचक्र वीथिका में भ्रमण नहीं करवा रहे ? ...इन कुछ विषयों पर विचार करना जरूरी लगता है ....................अरविन्द

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