रविवार, 20 जनवरी 2013

जिन्दगी की भाग -दौड़ में

जिन्दगी की भाग -दौड़ में
बहुत कुछ छूट जाता है .
जैसे अंजलि में संभाला हुआ पानी .
जैसे केले के पत्ते पर थिरकती ओस .की बूँद
ढली की अब ढली .
बहुत कुछ छूट जाता है इस भाग दौड़ में .

छूट जाता है बाप
 नींव में रखे पत्थर की तरह
घर को बनाने वाले मजदूर की तरह
कौन याद रखता है ?

कौन याद रखता है
उन बाँहों को जो
हवा में उछाल कर भी थाम लेतीं थीं .

कौन याद रखता है
उस वक्षस्थल को जहाँ
भयभीत नन्हा बालक
मुहँ छिपा कर निर्भय हो
खिलखिलाता था .
बहुत पीछे छूट जाता है बाप .

उस सुकरात की तरह
जिसने सत्य के उद्घाटित होते ही
पैर के अंगूठे से लेकर
शेष अंगों को सुन्न होते देखा है .

उस बूढ़े पीपल की तरह
जिसके सारे पत्ते झड गए हैं
और वह ठिठुरती हुई हवा में
अकेला सनसनाता है .

बाप बहुत पीछे छूट जाता है .

कौन याद रखता है
चूल्हे में जलने वाली लकडियो में
उसी के पसीने की गंध आ रही है .
किसे याद रहता है
जेठ की दुपहरिया में
चारपाई पर लेटे हुए वह
बच्चों की चिंता करता है
सुस्ताता नहीं है .

थका हारा, रात को
आपस में लड़ते बच्चों को देख कर
मुस्कुराता है
बाप बहुत पीछे छूट जाता है .

ऐसा किसान
जिसके सामने
सफेदे के लम्बे तने हुए वृक्ष
उसी की जमीन का जल सौख कर
लहलहाते हैं .

अच्छा लगता है
प्रकाश देते देते मौमबती का
धीरे धीरे पिघलना .
अच्छा लगता है उसे
मंदिर के कंगूरों पर
स्वर्ण कलशों का दमकना .
अच्छा लगता है
सायंकाल में अस्तंगत
सूर्य का लाल होकर
दरकना ..

जिन्दगी की भाग दौड़ में
बहुत कुछ पीछे छूट जाता है ....अरविन्द





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