रविवार, 6 जनवरी 2013

कवि सूद के लिए --

कवि सूद के लिए --

जब भी खुद से मिलता हूँ
तब ही कविता लिखता हूँ

अपनों की कुछ सुनता हूँ
बेगानों को  भी गुनता हूँ
नित निंदा चुगली करता हूँ
 जब थोडा चुप  होता हूँ --
 खुद को परखा करता हूँ
तब ही कविता लिखता हूँ .

जगती प्रभु की क्यारी है
कुछ मीठी है कुछ खारी है
ये लगती बहुत प्यारी है
यहाँ लगती सब की तारी है
यहाँ प्यारी प्यारी यारी है
सब  तरफ मारा मारी है
इसे परखा देखा करता हूँ
तब फिर कविता लिखता हूँ .

बच्चे यहाँ जब आते  हैं
कुछ गाते हैं तुतलाते हैं
कुछ चीखतेहैं चिल्लाते हैं
कुछ मैं मैं तूं तूं करते हैं
माता की गोदी में लेटे  --
कुछ कथा कहानी सुनते हैं
तब रचना देखा करता हूँ
तब फिर कविता लिखता हूँ .

ये बुढ़िया भी जब आती है
कुछ खीजती ओ खिजाती है
उठने, बैठने और सोने  पर
नित प्रश्न नए लगाती है
तब फिर चिढ़ता कुढ़ता हूँ
तब फिर कविता लिखता हूँ .

घर भी अच्छा लगता है
जग भी अच्छा लगता है
मन भी अच्छा लगता है
वन भी अच्छा लगता है
कुछ सुविधाओं का मारा हूँ
कुछ दुविधाओं का मारा हूँ
जब निर्णय नहीं कर पता हूँ
तब छत पर सीधा जाता हूँ
झुंझलाता हूँ चकराता हूँ
तब भी कविता लिखता हूँ .

कविता ही दुःख दर्द सुने
कविता सुख की बात गुने
कविता के संग रोया हूँ
कविता के संग सोया हूँ
कविता ही बस मेरी है
बाकि दुनिया सब तेरी है .......अरविन्द





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