शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

संत की पहचान

संत की पहचान

वर्तमान भारत का धार्मिक ,आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परिवेश संक्रमण काल से संवेष्टित है . जहाँ सामान्य जनता में पूजा -पाठ , हवन -अनुष्ठान ,तीर्थ -भ्रमण -स्नान ,मूर्ति पूजन ,मंदिर ,मस्जिद दर्शन अथवा विविध सांप्रदायिक मठों के प्रति भक्ति -भाव पूर्ण प्रेम प्रकट हो रहा है ,वहीं समाज में अनेक प्रकार के साधु -  संत भिन्न -भिन्न रूपों और स्वनिर्मित अथवा कल्पित भावभूमियों में प्रकट होकर सामान्य जन का मार्ग दर्शन कर रहे हैं . आज कबिरादि जैसे त्यागी ,तपस्वी ,स्वकर्मनिष्ठ ,आत्म -संधाता व्यक्ति संत परम्परा में दिखाई नहीं देते बल्कि महामठों के प्रांगणमें बिछी मखमली घास पर ,रेशमी परिधानों में विविध वर्णी तिलकों से अभिमंडित महाराज उपाधि विभूषित कल कल कंठों की जय ध्वनि मध्य आभिजात्य वर्ग के मण्डलेश्वर दिखाई देते हैं .इन तथाकथित प्रज्ञा पुरुषों के आभा मण्डल को विराट और प्रभावशाली बनाने के लिए अनेक दासनुमा सेवक भक्तों का समूह इन संतों की चकाचोंधपूर्ण सांसारिक किम्वदंतियो के प्रचार के माध्यम से समाज के सामान्य और विशिष्ट जन को विस्मित कर रहे हैं .

सुरुचिपूर्ण रूप से सुसज्जित ,उच्च और भव्य मंचों पर विराजमान स्वयंभू विराट पुरुष ,अनन्त श्री विभूषित , 1008, महामंडलेश्वर आदि विशेषणों से विभूषित तथाकथित संत -महात्मा अपने समक्ष उपस्थित भीड़ को ; जिन्हें वे जानते ,पहचानते और परखते तक नहीं हैं उन्हें मन्त्रदान ,नामदान ,दीक्षादान ,कौपीनदान ,पुत्रदान ,संपत्तिदान आदि दान की महिमा से उपकृत कर रहे हैं और उपकृत साधारण जन ऐसे साधुओं और संतों के चरणों में लोट -पोट हो रहा है .

उच्चाकाश चुम्बित स्फटिक शिला निर्मित मंदिरों के ईशान कोण में अवस्थित परमात्मा का उत्कीर्णित रूप मौन भाव से अपने समक्ष प्रज्वलित दीपक की लॊ में प्रसरित हो रहे अज्ञानान्धकार को निहारता है और घ्राण सुख के लिए अगरु -धूप के ही आश्रित है .स्वयंभू सदगुरुओं के समक्ष समुपस्थित स्त्री -पुरुषों के समवेत कल कंठों से नि :सृत "राधे -राधे ,गोविन्द गोविन्द ,की मधुर ध्वनि उस पाषाण मूर्ति के कर्ण कुहरों में गुंजित हो रही है परन्तु उसकी मुखाकृति में यह नाम -ध्वनि कोई सुखदानुभूति की रेखा को उत्पन्न नहीं कर पा  रही है .
वह निरंजन उसी प्रकार से निर्विकार -निर्लिप्त खड़ा है जैसे निरंतर के अभिषेक के उपरांत शिव -लिंग चुप -मौन और अविकारी रहता है .

सूरदास का इक तारा ,कबीर की धुनकी ,मीरा की सितार ,चैतन्य महाप्रभु का मृदंग ,मरदाने की रबाब कहाँ छिप गये हैं --कोई नहीं जानता . ऐसी परिस्थितियों में जब संत -परिवेश पूर्णतया परिवर्तित हो चुका हो, तो संतों की पहचान के चिन्हों को तलाशना अत्यंत आवश्यक हो जाता है .क्या मंदिरों और मठों के सभी अधीश या महामंडलेश्वर संत हैं ?या क्या सभी स्वामी नामधारियो को संत कहा जा सकता है ?या प्रत्येक गेरुआ या श्वेत वल्कल-आवेष्टित पुरुष या स्त्री संत है ?या व्यास पीठासीन हर कथावाचक संत कहलाने का अधिकारी है ? संत और संतत्व के सत्यानुसंधान के लिए इस प्रकार के अनेक प्रश्नों का सामना तो करना ही होगा .

जब सादा जीवन और उच्च विचार लुप्त हो जाएँ ,जब समाज सुधार के नाम पर व्यक्ति पूजा और व्यक्ति -समक्ष समर्पण   आरम्भ हो जाए ,जब मन्त्र और परमात्मा अपने मूलार्थ से विच्युत कर दिए जाएँ ,जब केवल संगीतमय नृत्य को ही भक्ति मान लिया जाए ,जब केवल कथा कथन ,श्रवण ही साधना हो जाए ,प्रभु के प्रति निष्काम प्रेम का स्थान यन्त्र और ताबीज ले लें ,नव -ग्रह पूजन अथवा कर्म -काण्ड ही अध्यात्म निष्ठा हो जाए ,छोटी- छोटी आकांक्षाओं की पूर्ति  के लिए उठे करुण स्वर प्रार्थना में परिणत हो जाएँ , सद्ग्रंथों की स्वाध्याय वृति मरणासन्न हो , दान दक्षिणा की भावना ही भक्ति हो जाए तब -तब संत की पहचान करना और संतत्व के मानदंडों को तलाशना ,सत्य संरक्षा के लिए अनिवार्य हो जाता है ,ताकि समाज में अकारण करुणावरुणालय  का अविकृत रूप प्रतिष्ठित परिनिष्ठित रहे ,भक्ति की मन्दाकिनी अविरल प्रवाहित होती रहे ,समर्पण में परम शांति और परमात्म प्रेम व्यंजित होता रहे ,व्यक्ति के मन वाणी और कर्म सात्विक रह सकें .

संतत्व केवल परिधान परिवर्तन नहीं है बल्कि मानव मन का ऐसा रूपान्तरण है जहाँ कोई पराया शेष नहीं रहता . कबीर के समय भी संतों की पहचान दुर्लभ और दुरूह हो गयी होगी ,तभी तो कबीर को कहना पड़ा कि --मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा .

संत शब्द के साथ अनेक ऐसे विशेषण जुड़े हुए हैं जो संत की कसौटी हैं --जैसे शांत ,पवित्रात्मा ,सत आदि ,वस्तुत: संत उस जीवन्त चेतना का वाचक है जिसने ज्ञान ,भक्ति और कर्म के सम्मिश्रण के साथ सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ स्वयं को ऐसे परमतत्व से सम्बद्ध कर लिया है ,जो अनश्वर और अविकारी रूप में सर्वत्र विद्यमान है ,एक रस और संपूर्ण है . संत अपने आंतरिक और बाह्य परिवेश में व्याप्त विकारों को दूर करने के लिए सतत प्रयत्नशील है ,समता सामंजस्य ,प्रेम और प्रभु के ब्रह्मत्व ,सत और सत्य के प्रति समर्पित है . उस एक सत के साथ सम्बद्ध होने के कारण उसे संत कहा जाता है .ऐसी व्यक्ति चेतना जिसने स्वयं को परमसत्ता के साथ तद्रूप कर लिया है ,जो सत्य स्वरुप नित्य प्रभु का साक्षात्कार कर चुका है . जिसने अपरोक्षानुभूति से अखंड परमसत्य को स्वयं में स्थापित ,प्रतिष्ठित और समाहित कर लिया है --वही संत है .

कबीर ने संतों के लक्षणों को प्रकट करते हुए कहा है --
                            निरवैरी निहकामता साईं सेती नेह ,विषया सूं न्यारा रहे संतन को अंग एह ..
वस्तुत: निरवैर ,निष्काम ,विषय वासनाओं से मुक्त सत्कर्म युक्त ,परमात्म तत्व में एकांत निष्ठ ,समभाव -सद्भाव रखने वाला ,नि:संग और निष्काम ,कथनी और करनी में एक ,मानापमान से परे लोक लाज व मान मर्यादा से मुक्त ,निर्लिप्त ,निर्दोष ,निर्मल व्यक्ति ही संत है .

अत:यह कहा जा सकता है कि जिस मानव की मनीषी चेतना ने सतत साधना ,न्याय और तपस्या से एकाग्र मनसा परमतत्व की आराधना ,आत्म -चेतना की गवेषणा ,आत्मिक और आध्यात्मिक विकास की समदर्शिता ,अभ्यास ,वॆराग्य साधना और स्वाध्याय से अर्जित की है --वह संत है .ज्ञान की ऊष्मा जिस दिव्य बौधिसंपन्न व्यक्ति के नवनीत हृदय को अहंकार से परितप्त नहीं करती जी,जिसके सामीप्य से सुशांत शीतलता प्राप्त होती है ,प्रकृष्ट पांडित्य जिसे सौम्यता और विनम्रता प्रदान करता है , जो सांसारिक प्रपंचों में भी तटस्थ है और तत्व निश्चय के लिए जागरूक है ,सतत तप -स्वाध्याय निरत है ,जिसने जागतिक और आध्यात्मिक अनुभव से परम दर्शन प्राप्त किया है ,जो परमानन्द और परमशान्ति के अहलाद्कारी स्पर्श को शब्द और दृष्टि से संप्रेषित करता है --वह संत है .

आध्यात्मिक और पारमात्मिक चिंतन ने कभी वैचारिकता की अवमानना नहीं की है बल्कि मीरा , सहजो नानक ,कबीर आदि संतों में ज्ञान के उपरान्त ही गीत आरम्भ हुआ था .इसीलिए संत चेतना कभी अविचारित नहीं रहने देती बल्कि तर्कातीत अवस्था में भी साधक की चेतना को दिव्य इंगित प्रदान करती है .

संत का उद्देश्य मानवीय जीवन की सांसारिक धारा में धर्म और आस्था का रूप धारण कर गए पाखंडों का मूलोच्छेदन करना है .कारण है , पाखण्ड ,मिथ्याचरण और आभासिक स्तुतियाँ ही मानव जीवन में एकमात्र ऐसा आवरण है जिन्होंने ज्ञान और प्रकाश को आच्छादित किया हुआ है . संत इन आवरणों को हटा कर मानवीयता को कल्याण पथ पर आरूढ़ करता है ....................................अरविन्द
                                                                               प्रकाशित ,विश्व ज्योति ,संत अंक ..2011


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