रविवार, 20 जनवरी 2013

आत्मकृपा ही परमात्मकृपा है

समस्त भारतीय दर्शन संसार को मायाजन्य मानते हैं .माया से ही संसार की उत्पत्ति हुई है .अशुद्ध माया से उत्पन्न होने के कारण इसमें मलीनता है ,अज्ञान और नश्वरता है .कारण यह है कि मलिन संसार के मूल में अविद्या है ,जिसका स्वाभाविक गुण आसक्ति है .इसीलिए संसार पुत्रैषना ,वित्तेषना और लोक की एषणा की विविध आसक्तियों में लिप्त होकर जन्म के वास्तविक उद्देश्य से विमुख हो जाता है .परन्तु सत्य को जानने की इच्छा बनी रहती है ,यही इच्छा की उद्दीप्ति आत्मकृपा है ,यही आत्मकृपा साधक को मलिन जगत की मायिक लीला के प्रदेश से बाहर निकालती है और जीव का प्रवेश विद्या तथा शुद्ध जगत में होता है .यह वह प्रदेश है जहाँ केवल आनन्द ही संश्लिष्ट है .आत्म जागरण युक्त आत्मा जीव को इस मायिक प्रदेश में रहने नहीं देता ,क्योंकि वह स्वयंसंबोधि से जान जाता है कि इनसे परे ही विशुद्ध आत्म स्वरूप स्थित है . यह  विशुद्ध आत्मस्वरूप विश्व के अतीत होकर भी विश्व की प्रत्येक वस्तु से अभिन्न है .गुरु इसी पूर्ण सत्य को साधक के समक्ष प्रकट करता है  परन्तु कुछ गुरु ,.साधक को संसार की और उन्मुख करने वाले  पूर्ण सत्य पर आवरण रख कर उसे सांसारिक वृतियों की सेवा में लगा देते हैं  ---इसी विन्दु पर आध्यात्मिक चूक होती है ,जिसके कारण हम मायिक लीला को ही सत्य समझने -समझाने लगते हैं .इसीलिए यदि आत्म के पूर्ण स्वरूप की उपलब्धि करनी हो ,तो हमें इस विश्व का ,जिसे शुद्ध जगत भी कहते हैं ,उसका भी अतिक्रमण करना पड़ता है .यह अतिक्रमण गीता के अभ्यास और  विराग अर्थात व्यक्ति के आत्मकृपा पर ही अवलम्बित है .

गुरु का पहला काम और उसकी आवश्यकता शिष्य रूपी जीव के दुःख की निवृति की व्यवस्था करना है . माया के इस जगत में भेद ज्ञान से परिपूर्ण जीव कर्म संस्कार सम्पन्न अभिमान से पुष्ट अनादि काल से कर्म करता हुआ और कृत कर्मों का फल भोगता हुआ आ रहा है . जन्म जन्मान्तरों से संसार की यही धारा है . जब तक जीव का भेद ज्ञान और कृत कर्माभिमान नष्ट नहीं होता ,तब तक इस संसार की लीला का भी अंत नहीं होता है .यद्यपि जीव चिदात्मक है तथापि अज्ञानजन्य माया के प्रभाव में वह जडसत्ता को ही अपनी चित्सत्ता मान कर भीषण भूल करता आ रहा है . इसीलिए वह जन्म की क्रिया , देह धारण करने की सीमा से ससीमता का कष्ट , मानसिक अनुभूतियों का द्वन्द ,इन्द्रिय लालसाओं का मर्दन और असीम आनन्द प्राप्ति की अतृप्त कामना जीव के दुःख का अंत नहीं होने देतीं .

कभी कभी नाम जप , मन्त्र साधना , ध्यान धारणा ,तीर्थाटन अथवा साधू संगति के प्रभाव से मनुष्य को ऐसा अनुभव होता है कि वह ऊर्ध्वगति की ओर उन्मुख है ,परन्तु यह ऊर्ध्वगति अस्थाई होती है (प्रमाण हैं ),इसीलिए भासती है और न ही इससे हमें वास्तविक पथ की कोई सूचना ही प्राप्त होती है .बल्कि इस अस्थाई ऊर्ध्वगति से हम पुन: माया के राज्य में प्रवेश कर जाते हैं और इसे ही इदमिथं समझ कर यहीं अपनी साधना को पूर्णविराम  लगा देना चाहते हैं ---यही अज्ञान है .

चेतन आत्मा जब तक स्वयं को जड़ से पृथक नहीं मानेगा तब तक इस दुःख मय कालचक्र से मुक्ति की कोई आशा नहीं है . ऐसी स्थिति में जो अनुग्रहपूर्वक ज्ञान प्रदान करके हमें इस अज्ञान से मुक्त होने में सहायता प्रदान करता है ---वही गुरु है ,गुरु की सहायता से विवेक ज्ञान उपलब्ध होता है और विशुद्ध विवेक ज्ञान से आत्मा की निर्मल स्वरूप में अवस्थिति होती है .निर्मल स्वरूप का अर्थ है --जहाँ न राग है न द्वेष , न ईर्ष्या है न पाखण्ड ,न ज्ञान है न अज्ञान ,न द्वैत है न अद्वैत ,न मैं  हूँ  न तू है ,वहां केवल निर्विकल्पिक आनंद है। इसे मुक्ति भी कहा जा सकता है .मुक्ति का अर्थ केवल आवागमन के चक्र से बाहर आना नहीं है --जो ऐसा मानते हैं उन्होंने न जन्म जाना न मृत्यु .

वस्तुत:हम सभी पूर्ण हैं क्योंकि पूर्ण से उद्भूत होने वाला तत्व भी पूर्ण ही हो सकता है ,आवश्यकता केवल पूर्ण पर आवृत मायिक आवरण को हटाने की है ,संसार के लीला प्रदेश से हट कर,ना कि भाग कर ,इसे उपलब्ध किया जा सकता है .......................अरविन्द                 

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