मंगलवार, 1 जनवरी 2013

चिड़िया

कविता की चिड़िया
रोज चहचहाती है .
मेरे मन की मुंडेर पर
नित गीत नये गाती है .

गाना ही गाना और
फुदक फुदक जाना .
कुदरत में नित नये
रंग गीत भरती है .

पेड़ों की डालिओं पर
छाया और धूप में ,
असुरक्षित जीवन की
भय मुक्त भीति में
आत्मा के सुख का
जीवन गीत गाती है .

आदमी की क्या कहें
आदमीयत है कहाँ  ?
जानवरों सा जी रहा
हिंस्र दानव है यहाँ .
परभक्षी जीव यह
मानव इसे क्यों कहें ?
दूसरों का रक्त चूस
दानव  ही यह पल रहा .

न प्रेम इसके पास है
पाखंड का यह दास है
कुदरत के सौन्दर्य का
नारकीय  वास  है ......अरविन्द






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