जी चाहता है
 इन्द्रधनुष जब खिले
 और मैं बच्चा हो फिर नाचूं।
 खिले हुए
 बहुरंगी रंग में
 गिरती बूंदों की छम छम में
 भीगूँ ,खुल कर भागूं।
 
 गली मुहल्ले के
 छप्पड़ में
 खुल कर पंक उछालूँ ।
 गंदे पानी में लथपथ हो
 माँ की चढ़ी त्यौरी संग मैं
 अपनी पीठ खुजा लूँ।
 
 बड़े हुए बड़प्पन पाया
 कितना कुछ खो  डाला।
 निर्मलता उडी परी सी ,
 अहंकार घर डाला।
 ईर्ष्या , द्वेष के कीड़े चिपटे
  पाखंडी कर डाला।
 बचपन क्या छूटा
 आनंद कहीं धो डाला।
 
 शुक्र करूँगा , वृद्ध बनूँगा
 फिर बचपन जी पाऊँगा।
 अपने मन की दबी हसरतें
 बूढ़ा हो ,पूरी कर पाऊँगा।
 
 बचपन है प्रभु की संगत
 बचपन अभेद आनंद।
 बचपन छूटा , छूट गया फिर
 चित्त का सच्चिदानन्द। .......... अरविन्द