हमें पढ़ाने वे लग पड़े जिन्हें पढाया था कभी
गोदी में बैठ दाढ़ी खींचते जिनके हम बाप हैं अभी .
बदहाल हो चुका है हाल हमारे विद्या मंदिरों का
मजबूरी नहीं यहाँ, तो भी गधे को बाप कहते हैं सभी .
न छंद है न भाषा जहाँ, न तुक का ज्ञान है न भाव है
कवि के रंगीन परों को कुक्कडों सा नोचते हैं वे सभी .
समझदारी से नहीं जिया जिन्होंने कभी एक भी पल
सूरज की ओर पीठ कर बैठी है कौओं की पांत अभी .
दूसरों की अर्जित मलाई पर इन्होने हाथ फेरा है सदा
मौकापरस्त चापलूसों की लम्बी कतार है लगी हुई ....अरविन्द
गोदी में बैठ दाढ़ी खींचते जिनके हम बाप हैं अभी .
बदहाल हो चुका है हाल हमारे विद्या मंदिरों का
मजबूरी नहीं यहाँ, तो भी गधे को बाप कहते हैं सभी .
न छंद है न भाषा जहाँ, न तुक का ज्ञान है न भाव है
कवि के रंगीन परों को कुक्कडों सा नोचते हैं वे सभी .
समझदारी से नहीं जिया जिन्होंने कभी एक भी पल
सूरज की ओर पीठ कर बैठी है कौओं की पांत अभी .
दूसरों की अर्जित मलाई पर इन्होने हाथ फेरा है सदा
मौकापरस्त चापलूसों की लम्बी कतार है लगी हुई ....अरविन्द
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