मित्रो आज कुछ कुण्डली छन्द का आनन्द लेते हैं ---
1 . मित्रता अनमोल रत्न , है सौभाग्य सुजान। 
 
     समदर्शी निष्कपटता , नहीं मान अपमान। 
 
      नहीं मान अपमान , देवत्व दे मनुज को  । 
 
      करती देव समान , शुभ्रता वरदाती हो  । 
 
      कहता है अरविन्द ,जिसे हो चाह पात्रता। 
 
      रत्नों का है रत्न , वरो निष्कपट मित्रता। 
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2 . आलोचक हों भाड़ में , चिन्ताशील निमग्न। 
 
     कुण्डल को हैं रच रहे , जो हैं छन्दो भग्न  । 
 
     जो हैं छन्दो भग्न , वही अब नाचें जी भर। 
 
     कहता है अरविन्द , मनाते खुशियां जी भर। 
 
     उल्टा पुल्टा लिखो , हम हैं छन्द उन्मोचक। 
 
     भय अब छोड़ो प्रिये , भाड़ में हों आलोचक। 
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3 .   सुकीर्ति को पाओ कवि , उधड़े कविता खाल। 
 
       आकर कहाँ हम फंसे , कवि जी हैं बेहाल  । 
 
       कवि जी हैं बेहाल , श्रृंगार क्लिष्ट हुआ है  । 
 
       विरह ग्रस्त है त्रस्त , प्रिये उन्मुक्त हुआ है। 
 
       कहते हैं अरविन्द , होत है  बड़ी अपकीर्ति  । 
 
        कहाँ छिपे हो छन्द , पढ़ रहे कविता सुकृति। 
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4 .   पत्नी बोली आन कर , छोड़ कुंडली प्राण। 
 
        घर भीतर भी देख ले , मचा हुआ तूफ़ान। 
 
        मचा हुआ तूफ़ान  , तुझे बस कविता सूझे। 
 
        आटा  दालें  खत्म , तू  कुंडली  सुं  जूझे। 
 
        कहते हैं अरविन्द , अरे सुन मेरी   रत्नी। 
 
        कविता तो है खाज , अरे कुछ समझो पत्नी। ………अरविन्द